बाबाजी उसी समय उठ खड़े हुए। अपनी गठड़ी-मुटड़ी बाँध एक शेर पर लाद दिया तथा दूसरे पर आप सवार हो गये। इसके बाद एक शेर की तरफ देखकर कहा, "बच्चा गंगाराम, यहाँ तो आओ!" वह शेर तुरन्त इनके पास आया। बाबाजी ने इन्द्रजीतसिंह से कहा, "तुम इस पर सवार हो लो।" इन्द्रजीतसिंह कूदकर सवार हो गये और बाबाजी के साथ-साथ दक्षिण का रास्ता लिया। बाबाजी के साथी शेर भी कोई आगे कोई पीछे, कोई बायें कोई दायें हो बाबाजी के साथ जाने लगे।
सब शेर तो पीछे रह गये, मगर दो शेर जिन पर बाबाजी और इन्द्रजीतसिंह सवार थे, आगे निकल गये। दोपहर तक दोनों चलते गये। जब दिन ढलने लगा, बाबाजी ने इन्द्रजीतसिंह से कहा, "यहाँ ठहर कर कुछ खा-पी लेना चाहिए।" इसके जवाब में कुमार बोले, "बाबाजी, खाने-पीने की कोई जरूरत नहीं। आप महात्मा ही ठहरे, मुझे कोई भूख नहीं है, फिर अटकने की क्या जरूरत है? जिस काम में पड़े, उसमें सुस्ती करना ठीक नहीं!"
बाबाजी ने कहा, "शाबाश, तुम बड़े बहादुर हो। अगर तुम्हारा दिल इतना मजबूत न होता तो तिलिस्म तुम्हारे ही हाथ से टूटेगा, ऐसा बड़े लोग न कह जाते, खैर चलो।"
कुछ दिन बाकी रहा जब ये दोनों एक पहाड़ी के नीचे पहुँचे। बाबाजी ने शंख बजाया, थोड़ी ही देर में चारों तरफ से सैकड़ों पहाड़ी लुटेरे हाथ में बरछे लिए आते दिखाई पड़े और ऐसे ही बीस-पच्चीस आदमियों को साथ लिए पूरब की तरफ से आता हुआ राजा शिवदत्त नजर पड़ा, जिसे देखते ही इन्द्रजीतसिंह ने ऊँची आवाज में कहा, "इनको मैं पहचान गया, यही महाराज शिवदत्त हैं। इनकी तस्वीर मेरे कमरे में लटकी हुई है। दादाजी ने इनकी तस्वीर मुझे दिखा कर कहा था कि हमारे सबसे भारी दुश्मन यही महाराज शिवदत्त हैं। ओफ-ओह, हकीकत में बाबाजी ऐयार ही निकले, जो सोचा था वही हुआ! खैर क्या हर्ज है। इन्द्रजीतसिंह को गिरफ्तार कर लेना जरा टेढ़ी खीर है!"
शिवदत्त-(पास पहुँचकर) मेरा आधा कलेजा तो ठंडा हुआ, मगर अफसोस, तुम दोनों भाई हाथ न आये।
इन्द्रजीतसिंह-जी, इस भरोसे न रहियेगा कि इन्द्रजीतसिंह को फाँस लिया। उनकी तरफ बुरी निगाह से देखना भी बहुत खतरे का काम है!
ग्रन्थकर्ता-भला इसमें भी कोई शक है!
2
इस जगह पर थोड़ा-सा हाल महाराज शिवदत्त का भी बयान करना मुनासिब मालूम होता है। महाराज शिवदत्त को हर तरह से कुँअर वीरेद्रसिंह के मुकाबले में हार माननी पड़ी। लाचार उसने शहर छोड़ दिया और अपने कई पुराने खैरख्वाहों को