पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१९

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बाबाजी–हाँ ऐसा ही होगा, वह जरूर तुम्हारे हाथ से फतह होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं।

इन्द्रजीतसिंह-देखें, कब तक ऐसा होता है, उसकी ताली का तो कहीं पता ही नहीं लगता।

बाबाजी-ईश्वर चाहेगा तो एक ही दो दिन में तुम उस तिलिस्म को तोड़ने में हाथ लगा दोगे, उस तिलिस्म की ताली मैं हूँ, कई पुश्तों से हम लोग उस तिलिस्म के दरोगा होते चले आए हैं। मेरे परदादा, दादा और बाप उसी तिलिस्म के दरोगा थे, जब मेरे पिता का देहान्त होने लगा तब उन्होंने उसकी ताली मेरे सुपुर्द कर मुझे उसका दरोगा मुकर्रर कर दिया। अब वक्त आ गया है कि मैं उसकी ताली तुम्हारे हवाले करूँ क्योंकि वह तिलिस्म तुम्हारे नाम पर बांधा गया है और सिवाय तुम्हारे कोई दूसरा उसका मालिक नहीं बन सकता।

इन्द्रजीतसिंह-तो अब देर क्या है?

बाबाजी—कुछ नहीं, कल से तुम उसके तोड़ने में हाथ लगा दो, मगर एक बात तुम्हारे फायदे की हम कहते हैं।

इन्द्रजीतसिंह-वह क्या?

बाबाजी-तुम उसके तोड़ने में अपने भाई आनन्द को भी शरीक कर लो, ऐसा करने से दौलत भी दूनी मिलेगी और नाम भी दोनों भाइयों का दुनिया में हमेशा के लिए बना रहेगा।

इन्द्रजीतसिंह-उसकी तो तबीयत ही ठीक नहीं!

बाबाजी—क्या हर्ज है! तुम अभी जाकर जिस तरह बने, उसे मेरे पास ले आओ, मैं बात की बात में उसको चंगा कर दूंगा। आज ही तुम लोग मेरे साथ चलो, जिसमें कल तिलिस्म टूटने में हाथ लग जाय, नहीं तो साल भर फिर मौका न मिलेगा।

इन्द्रजीतसिंह-बाबाजी, असल बात यह है कि मैं अपने भाई की बढ़ती नहीं चाहता। मुझे यह मंजूर नहीं कि मेरे साथ उसका भी नाम हो।

बाबाजी-नहीं-नहीं, तुम्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए, दुनिया में भाई से बढ़ के कोई रत्न नहीं है।

इन्द्रजीतसिंह-जी हाँ, दुनिया में भाई से बढ़ के रत्न नहीं, तो भाई से बढ़ के कोई दुश्मन भी नहीं, यह बात मेरे दिल में ऐसी बैठ गयी है कि उसके हटाने के लिए ब्रह्मा भी आकर समझावें-बुझावें, तो भी कुछ नतीजा न निकलेगा।

बाबाजी-बिना उसको साथ लिए तुम तिलिस्म नहीं तोड़ सकते।

इन्द्रजीतसिंह-(हाथ जोड़कर) बस, तो जाने दीजिए। माफ कीजिये, मुझे तिलिस्म तोड़ने की जरूरत नहीं!

बाबाजी-क्या तुम्हें इतनी जिद है?

इन्द्रजीतसिंह-मैं कह जो चुका कि ब्रह्मा भी मेरी राय नहीं पलट सकते।

बाबाजी–खैर, तब तुम्हीं चलो, मगर इसी वक्त चलना होगा।

इन्द्रजीतसिंह-हाँ-हाँ, मैं तैयार हूँ, अभी चलिए।