पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१८१

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लाली-वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती।

किशोरी-अगर तुम्हारा हाल किसी से कह दे तो?

लाली-अपनी जबान से वह नहीं कह सकती, क्योंकि वह मेरे पंजे में उतनी ही फँसी हुई है जितनी मैं उसके पंजे में।

किशोरी–अफसोस! इतनी मेहरबान रहने पर भी तुम वह भेद मुझसे नहीं कहती!

लाली–घबराओ मत! धीरे-धीरे सब-कुछ मालूम हो जायेगा।

इसके बाद लाली ने दबी जबान से किशोरी को कुछ समझाया और दो घण्टे में फिर मिलने का वादा करके वहाँ से चली गई।

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हम ऊपर कई दफे लिख आये हैं कि उस बाग में, जिसमें किशोरी रहती थी, एक तरफ एक ऐसी इमारत है जिसके दरवाजे पर बराबर ताला बन्द रहता है और नंगी तलवार का पहरा पड़ा करता है।

आधी रात का समय है। चारों तरफ अँधेरा छाया हुआ है। तेज हवा चलने के कारण बडे-बड़े पेड़ों के पत्ते खड़खड़ा कर सन्नाटे को तोड़ रहे हैं। इसी समय हाथ में कमन्द लिए हए लाली अपने को हर तरफ से बचाती और चारों तरफ गौर से देखती हए उसी मकान के पिछवाड़े की तरफ जा रही है। वह दीवार के पास पहुँची और कमन्द लगाकर छत के ऊपर चढ़ गई। छत के ऊपर चारों तरफ तीन-तीन हाथ ऊँची दीवार थी। लाली ने बड़ी होशियारी से छत फोड़ कर एक इतना बड़ा सूराख किया जिसमें से आदमी बखूबी नीचे उतर जा सके और खुद कमन्द के सहारे उसके अन्दर उतर गई।

दो घण्टे के बाद एक छोटी-सी सन्दूकड़ी लिए हुए लाली निकली और कमन्द के सहारे छत के नीचे उतर एक तरफ को रवाना हुई। पूरब तरफ वाली बारहदरी में आई, जहाँ से महल में जाने का रास्ता था, फाटक के अन्दर घुसकर महल में पहुँची। यह महल वहत बड़ा और आलीशान था, दो सौ लौंडियों और सखियों के साथ महारानी साहिवा इसी में रहा करती थीं। कई दालानों और दरवाजों को पार करती हुई लाली ने एक कोठरी के दरवाजे पर पहुँच कर धीरे से कुण्डा खटखटाया।

एक बुढ़िया ने उठकर किवाड़ खोला और लाली को अन्दर करके फिर बन्द कर लिया। उस बुढ़िया की उम्र लगभग अस्सी वर्ष के होगी, नेकी और रहमदिली उसके चेहरे पर झलक रही थी। सिर्फ छोटी-सी कोठरी, थोड़े में जरूरी सामान और मामूली चारपाई पर ध्यान देने से मालूम होता था कि बुढ़िया लाचारी में अपनी जिन्दगी बिता रही है। लाली ने दोनों पैर छूकर प्रणाम किया और उम बढ़िया ने पीठ पर हाथ फेर कर बैठने के लिए कहा।