मजबूत बँधे हुए थे। भीमसेन ने पुकारकर कहा, "क्यों नाहरसिंह! क्या मेरी मदद न करोगे?"
नाहरसिंह––अब मैं तुम्हारा ताबेदार नहीं हूँ।
इन्द्रजीतसिंह––(भीमसेन से) तुम्हें किसने बाँधा?
भीमसेन––मैं पहचानता तो नहीं, मगर इतना कह सकता हूँ कि आपके एक साथी ने।
इन्द्रजीतसिंह––और वह बाबाजी कहाँ चले गये?
भीमसेन––क्या मालूम?
इतने ही में खँडहर की दीवार फाँदकर आते हुए तारासिंह भी दिखाई पड़े। इन्द्रजीतसिंह घबराए हुए उसकी तरफ बढ़े और पूछा, "तुम कहाँ चले गये थे?"
तारासिंह––जिस समय हम लोग यहाँ आये थे, एक बाबाजी भी इस जगह मौजूद थे मगर न मालूम कहाँ चले गये! मैं एक आदमी की मुश्कें बाँध रहा था कि उसी समय (हाथ का इशारा करके) उस झाड़ी में छिपे कई आदमी बाहर निकले और किशोरी को जबर्दस्ती उठाकर उसी तरफ ले चले। उन लोगों को जाते देख किन्नरी और कमला भी उसी तरफ लपकी। मैंने यह सोचकर कि कहीं ऐसा न हो कि आपको लड़ाई के समय धोखा देकर यह आदमी पीछे से आप पर वार करे झटपट उसकी मुश्कें बाँधी और फिर मैं भी उसी तरफ लपका जिधर वे लोग गये थे। वहाँ कोने में एक खुली हुई खिड़की नजर आयी। मैं यह सोच उस खिड़की के बाहर गया कि बेशक इसी राह से वे लोग निकल गये होंगे।
इन्द्रजीतसिंह––फिर कुछ पता लगा?
तारासिंह––कुछ भी नहीं, न मालूम वे लोग किधर गायब हो गये! मैं आपको लड़ते हुए छोड़ गया था, इसलिए तुरन्त लौट आया। अब आप घर चलिए, आपको पहुँचाकर मैं उन लोगों की खोज में निकलूँगा। (नाहरसिंह की तरफ इशारा करके) इनसे क्या निपटारा हुआ?
इन्द्रजीतसिंह––इन्होंने मेरी ताबेदारी कबूल कर ली।
तारासिंह––सो तो ठीक है, मगर दुश्मन का
नाहरसिंह––आप इन सब बातों न सोचिये। ईश्वर चाहेगा तो आप मुझे बेईमान कभी न पावेंगे
तारासिंह––ईश्वर ऐसा ही करे!
रात की अँधेरी बिलकुल जाती रही और अच्छी तरह सवेरा हो गया। मुहल्ले के कई आदमी उस खिड़की की राह खँडहर में चले आये और अपने राजा को वहाँ पा हैरान हो देखने लगे। कुँअर इन्द्रजीतसिंह, तारासिंह और नाहरसिंह अपने साथ भीमसेन को लिए हुए महल में पहुँचे और इन्द्रजीतसिंह ने सब हाल अपने छोटे भाई आनन्दसिंह से कहा। आज रात की वारदात ने दोनों कुमारों को हद से ज्यादा तरद्दुद में डाल दिया। किन्नरी और किशोरी के इस तरह मिल कर भी पुनः गायब हो जाने से दोनों ही पहले