कहा जिसके सुनते ही उसकी हालत बदल गई। बड़ी-बड़ी आँखें सुर्ख हो गईं, खूबसूरत चेहरा तमतमा उठा और तुरत उस नई औरत को साथ लेकर उस खोह के बाहर चली गई। वे डाकू उन दोनों औरतों का मुँह देखते ही रह गये, मगर कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी।
जब दो घण्टे तक दोनों औरतों में से कोई न लौटी, तो डाकू लोग भी उठ खड़े हुए और खोह के बाहर निकल गये। उन लोगों के इशारे और आकृति से मालूम होता या कि वे दोनों औरतों के यकायक इस तरह पर चले जाने से ताज्जुब कर रहे हैं। यह हालत देख कर देवीसिंह भी वहाँ से तुरन्त चल पड़े और सुबह होते-होते राजमहल में आ पहुँचे।
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कुँअर इन्द्रजीतसिंह तो किशोरी पर जी-जान से आशिक हो ही चुके थे। इस बीमारी की हालत में भी उसकी याद इन्हें सता रही थी और यह जानने के लिए बेचैन हो रहे थे कि उस पर क्या बीती, वह किस अवस्था में कहाँ है और अब उसकी सुरत कब किस तरह देखनी नसीब होगी। जब तक वे अच्छी तरह दुरुस्त नहीं हो जाते, न तो खुद कहीं जाने के लिए हुक्म ले सकते थे और न किसी बहाने से अपने प्रेमी साथी ऐयार भैरोंसिंह को ही कहीं भेज सकते थे। इस बीमारी की हालत में समय पाकर उन्होंने भैरोंसिंह से सब हाल मालूम कर लिया था। वे यह सुन कर कि किशोरी को दीवान अग्निदत्त उठा ले गया बहुत ही परेशान थे, मगर यह खबर उन्हें कुछ-कुछ ढाढ़स देती थी कि चपला, चम्पा और पण्डित बद्रीनाथ उसके छुड़ाने की फिक्र में लगे हुए हैं और राजा वीरेन्द्रसिंह को भी यह धुन जी से लगी हुई है कि जिस तरह बने, शिवदत्त की लड़की किशोरी की शादी अपने लड़के के साथ करके शिवदत्त को नीचा दिखावें और शर्मिन्दा करें।
कुँअर आनन्दसिंह ने भी अब इश्क के मैदान में पैर रख दिया, मगर इनकी हालत अजब गोमगो में पड़ी हुई है। जब उस औरत का ध्यान आता, जी बेचैन हो जाता था, मगर जब देवीसिंह की बात को याद करते कि वह डाकुओं के एक गिरोह की सरदार है तो कलेजे में अजीब तरह का दर्द पैदा होता था और थोड़ी देर के लिए चित्त का भाव बदल जाता था, लेकिन साथ ही इसके सोचने लगते थे कि कहीं अगर वह हम लोगों की दुश्मन होती तो मेरी तरफ देख कर प्रेम-भाव से कभी न हँसती और फूलों के गुलदस्ते और गजरे सजाने के लिए जब उस कमरे में आई थी तो हम लोगों को नींद में गाफिल पाकर जरूर मार डालती। पर, फिर हम लोगों की दुश्मन अगर नहीं है तो उन डाकुओं का साथ कैसा!
ऐसे-ऐसे सोच-विचार ने उनकी अवस्था खराब कर रक्खी थी। कुँअर इन्द्रजीत-