और आपने 'चन्द्रकान्ता' नामक उपन्यास लिखना प्रारम्भ किया। 'चन्द्रकान्ता' का पहला भाग सन् 1888 में छपा। इस उपन्यास में उन्होंने अपने युवावस्था के अनुभव तथा आँखों-देखी जंगल-जीवन की बहार का वर्णन किया।
उपन्यास छपते ही जनसाधारण में इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग केवल इस उपन्यास को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखने लगे। खत्रीजी ने 'चन्द्रकान्ता' तथा 'चन्द्रकान्ता सन्तति' के सभी भाग अल्प आयास में लिख डाले और हिन्दी के हज़ारों पाठक बनाये। अपने इस प्रयास की सफलता ने खत्री जी को और भी उत्साहित किया और आपने सन् 1898 के सितम्बर महीने में 'लहरी प्रेस' खोलकर उसी में अपने लिखे ग्रन्थ छापना प्रारम्भ कर दिया।
आपके अन्य उपन्यास 'नरेन्द्रमोहिनी' (सन् 1893), वीरेन्द्रवीर (1896), कुसुमकुमारी (1899), काजल की कोठरी (1902), भूतनाथ (1906), गुप्त गोदना (1906) भी प्रकाशित हुए। इनके अतिरिक्त 'नौलखा हार' तथा 'अनूठी बेगम' भी आपके और उपन्यास हैं।
अपने 'लहरी प्रेस' से ही खत्री जी ने 'सुदर्शन' नामक मासिक पत्रिका भी निकाली। परन्तु दो वर्षों के पश्चात् यह पत्रिका सम्पादक की मृत्यु के कारण बन्द हो गई। बाबू देवकी नन्दन खत्री ने हिन्दी साहित्य का अपने 'ऐयारी' उपन्यासों द्वारा बहुत उपकार किया। इनकी कल्पनाशक्ति भी अद्भुत थी। यही कारण है कि अभी तक आपके उपन्यासों के पाठक मिलते जा रहे हैं। हिन्दी के इस महान् आरम्भिक उपन्यासकार का देहान्त सन् 1913 में हुआ था।