विचित्र हालत हो जाती है।
मानिक के जड़ाऊ जेवरों का नाम सुनते ही मानो कुँअर आनन्दसिंह चौंक पड़े, इन्द्रजीतसिंह और तारासिंह का भी चेहरा बदल गया और उस औरत का विशेष हाल जानने के लिए घबराने लगे, क्योंकि उस रात को इन चारों ने इस कमरे में या यों कहिए कोठरी में जिस औरत की झलक देखी थी वह भी मानिक के जड़ाऊ जेवरों से ही अपने को सजाये हुए थी। आखिर आनन्दसिंह से न रहा गया, देवीसिंह को बात कहते-कहते रोक कर पूछा––
आनन्दसिंह––उस औरत का नख-शिख जरा अच्छी तरह कह जाइए।
देवीसिंह––सो क्यों?
वीरेन्द्रसिंह––(लड़कों की तरफ देख कर) तुम लोगों को ताज्जुब किस बात का है, तुम लोगों के चेहरे पर हैरानी क्यों छा गई है?
भैरोंसिंह––जी, वह औरत जिसे हम लोगों ने देखा था, ऐसे ही गहने पहने हुए थी जैसे चाचाजी कह रहे हैं।[१]
वीरेन्द्रसिंह––हाँ!
भैरोंसिंह––जी हाँ।
देवीसिंह––तुम लोगों ने कैसी औरत देखी थी?
वीरेन्द्रसिंह––सो पीछे सुनना, पहले जो ये पूछते हैं उसका जवाब दे लो।
देवीसिंह––नखशिख सुन के क्या कीजिएगा? सबसे ज्यादा पक्का निशान तो यह है कि उसके ललाट में दो-ढाई अंगुल का एक आड़ा दाग है। मालूम होता है शायद उसने कभी तलवार की चोट खाई है!
आनन्दसिंह––बस-बस-बस!
इन्द्रजीतसिंह––बेशक वही औरत है।
तारासिंह––कोई शक नहीं कि वही है।
भैरोंसिंह––अवश्य वही है!
वीरेन्द्रसिंह––मगर आश्चर्य है, कहाँ उन दुष्टों का संग और कहाँ हम लोगों के साथ आपस का बर्ताव।
भैरोंसिंह––हम लोग तो उसे दुश्मन नहीं समझते।
देवीसिंह––अब हम न बोलेंगे, जब तक यहाँ का खुलासा हाल न सुन लेंगे। न मालूम आप लोग क्या कह रहे हैं?
वीरेन्द्रसिंह––खैर, यही सही, अपने लड़के से पूछिए कि यहाँ क्या हुआ
तारासिंह––जी हाँ, सुनिए, मैं अर्ज करता हूँ।
तारासिंह ने यहाँ का सारा हाल खूब अच्छी तरह कहा। फूल तो फेंक दिए गए थे मगर गुलदस्ते अभी तक मौजूद थे, वे भी दिखाये। देवीसिंह हैरान थे कि यह क्या मामला है, देर तक सोचने के बाद बोले, "मुझे तो विश्वास ही नहीं होता कि यहाँ वही
- ↑ भैरोंसिंह और देवीसिंह का रिश्ता तो मामा-भांजे का था।, मगर भैरोंसिंह उन्हें चाचाजी कहा करते थे।