भैरोंसिंह––हाँ, एक बात ताज्जुब की और भी है जो मैंने अभी तक आपसे नहीं कही।
इन्द्रजीतसिंह––वह क्या?
भैरोंसिंह––(हाथ का इशारा करके) ये दोनों दरबाजे सिर्फ घुमाकर मैंने खुले छोड़ दिये थे; मगर सुबह को और दरवाजों की तरह इन्हें भी बन्द पाया।
तारासिंह––(आनन्दसिंह की तरफ देखकर) शायद रात को आप उठे हों?
आनन्दसिंह––नहीं।
इसी तरह देर तक ये लोग ताज्जुब भरी बातें करते रहे, मगर अक्ल ने कुछ गवाही न दी कि क्या मामला है। राजा वीरेन्द्रसिंह भी आ पहुँचे, उनके साथ और भी कई मुसाहिब लोग आ जमे। सभी इस आश्चर्य की बात को सुन कर सोचने और गौर करने लगे। कई बुजदिलों को भूत-प्रेत और पिशाच का ध्यान आया, मगर महाराज और दोनों कुमारों के खौफ से कुछ बोल न सके, क्योंकि ये लोग ऐसे डरपोक और इस खयाल के आदमी न थे और न ऐसे आदमियों को अपने साथ रखना ही पसन्द करते थे।
उन फूलों के गजरों और गुलदस्तों को किसी ने न छेड़ा और ज्यों के त्यों जहाँ के तहाँ लगे रह गये। रईसों की हाजिरी और शहर के इन्तजाम में दिन बीत गया और रात को फिर कल ही की तरह दोनों भाई मसहरी पर सो रहे। दोनों ऐयार भी मसहरी के बगल में जमीन पर लेट गये, मगर आपस में मिल-जुलकर बारी-बारी से जागते रहने का विचार दोनों ने ही कर लिया था और अपने बीच में एक लम्बी छड़ी इसलिए रख ली थी कि अगर रात को किसी समय कोई ऐयार कुछ देखे तो बिना मुँह से बोले छड़ी के इशारे से दूसरे को जगा दे। इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने भी कह रखा था कि अगर घर में किसी को देखना तो चुपके से हमें जगा देना, जिससे हम लोग भी देख लें कि कौन है और कहाँ से आता है।
आधी रात से कुछ ज्यादा जा चुकी है। कुँवर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह गहरी नींद में बेसुध पड़े थे। पहरे के मुताबिक लेटे-लेटे तारासिंह दरवाजे की तरफ देख रहे हैं। यकायक पूरब की तरफ वाली कोठरी में कुछ खटका हुआ। तारासिंह जरा-सा घूम गये और पड़े-पड़े ही उस कोठरी की तरफ देखने लगे। बारीक चादर पहले ही से दोनों ऐयारों के मुंह पर पड़ी हुई थी और रोशनी अच्छी तरह हो रही थी।
कोठरी का दरवाजा धीरे-धीरे खुलने लगा। तारासिंह ने छड़ी के इशारे से भैरोंसिंह को उठा दिया जो बड़ी होशियारी से घूमकर कोठरी की तरफ देखने लगे। कोठरी के दरवाजे का एक पल्ला अब अच्छी तरह खुल गया और एक निहायत हसीन और कमसिन औरत किवाड़ पर हाथ रखे खड़ी दोनों मसहरियों की तरफ देखती नजर पड़ी। भैरोंसिह और तारासिंह ने मसहरी के पाये पर हाथ का इशारा देकर दोनों भाइयों को भी जगा दिया।
इन्द्रजीतसिंह का रुख तो पहले ही उस कोठरी की तरफ था, मगर आनन्दसिंह उस तरफ पीठ किये सो रहे थे। जब उनकी आँखें खुली तो अपने सामने की तरफ जहाँ