आचार्योने सूर्य-चन्द्र या सोना-रूपा इन परिभाषाओंका बहुधा उल्लेस किया है। बौद्ध आचार्य विनयभीके एक गीतमें आया है- चन्दा आदिज समरस जोये अर्थात् चन्द्रमा और आदित्यका समरस देखना ही सिद्धि है । चन्द्रमा ओर सूर्य जहाँ अपना-अपना प्रकाश एकमें मिला देते हैं, अर्थात् समरस बनकर एक हो जाते हैं, वहीं उज्ज्वल प्रकाश हो जाते है, चन्द्र-सूर्यके प्रतीकों सृष्टि और ससार स्त्री और पुरुप, सोममयी ऊमा और कालाग्नि रुद्र, इडा और 'पिंगला आदिके प्राचीन प्रतीक पुनः प्रकट हो उठे हैं।' सूरज और चॉदकी इस आध्यात्मिक व्याख्या अनुसार लोरक और चाँद किस सीमा तक आस्मा और परमात्मा के प्रतीक है और उनके प्रेममें अलौकिकता कहाँतक देखी जा सकती है, इसका उहापोह करनेके पश्चात् ही चन्दायनके हजल (रूपक) होनेका निश्चय किया जा सकता है। लौकिक कथा के रूपमे चन्दायनमे प्रेमी प्रेमिकाके दो युग्म हे--(१) लोरक ओर चाँद, (२) औरफ और मेना। दोनो ही युग्मों की प्रेम व्यथाकी अभिन्यत्ति दाऊदने चरम रूपमें की है । अत दोनोंमें ही अलौकिक प्रेम देखने की चेष्टा की जा सकती है और दोनोंको ही परमात्मा और आत्माका प्रतीक कहा जा सकता है । पर सूफी दर्शनकी पिसे विश्लेषण करनेपर दोनो युग्मोमेंसे किसी युग्ममें आत्मा-परमात्माके अलौकिक प्रेमका रूप नहीं दिखाई पड़ता। सर्वप्रथम चाँदका परकीयत्व ही उसे परमात्माका प्रतीक माननेमें बाधक है। यदि उसरी उपेक्षा कर दी जाय तो भी चाँद और लोरकका जो प्रेम स्वरूप कायमें प्रकट किया गया है उससे सूफी साधरे अलौकिक प्रेमका किसी प्रकार सामजस्य नहीं होता। परमात्मा स्पी नारी (चाँद )के प्रति साधक रूपी नर (लोरक) के प्रेमकी जो तीवता होनी चाहिये, उसका काव्यमें सर्वथा अभाव है। काव्यके लौकिक स्वरूपको अलौकिकताके चश्मसे देखने पर लगेगा कि नारी स्पी परमात्मा ही नररूपी आत्माके पीछे पागल हो रहा है। चॉदा ही लेरक प्रति आकृष्ट होती है, वही उसके मात करनेरे लिये सचेष्ट होती है। रक तो स्वत निफिय यन्त्र-सा बना रहता है चिरस्पत उससे जो कुछ कहती है चुपचाप करता जाता है। सूफी साधना अनुमार आत्मा-परमात्मा के मिलनेने मार्गमें नाना प्रकारको याधाएँ आती है । यहाँ लेरक और चाँदके मिल्ना पश्चात् उनके मार्गमे बाधाएँ आती हैं और होरक अपनी प्रेमिकाके निकट होकर भी दूरीका अनुभव करता है और उसके लिए बिसूरता है। इस प्रकार आत्मारे परमात्मा तक पहुँच र पना होने या वन्दकी स्थिति प्रात रो जैमी कल्पना लोरक और चाँद इस रूप दिसाई नहीं देती। १ पदमारत, सीपनी-पापा. प्रथन सतरण, मायन, पृ० ६-७३
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