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पन्दायनमें एक बात,जो विशिष्ट रूपमें देसनेमें आती है, वह यह कि दाद- ने उसे आध्यात्मिकता और दार्शनिक्ताके बोझसे सर्वथा मुक्त रखा है। वे कहीं भी, परवती प्रेमाख्यानका की तरह धार्मिक प्रवचक्रे रूपमें आत्मा-परमात्मा, साधक और साधनाकी बात करते दिखाई नहीं पड़ते। उन्होंने जो कुछ कहा है, वह गैविक धरातल पर बैठ कर ही कहा है। ये अपने कथनमे इतने सरल है कि उन्हें किसी बात- की व्याख्या करने अथवा विसी प्रकारका अपना मत प्रकट करनेकी आवश्यकता बहुत ही कम हुई है । समूचे काव्यमें हम ऐसे वैवल तीन हौ स्थल ढूँढ पाये । हो सफ्ता है एक-आध स्थल और भी हों । इन स्थलों पर भी उन्होंने अपनी बात दो चार पक्तियोंमे कहकर ही समाप्त कर दी है; और उन्हें भी वे कविरे रूपमें स्वय अपनी ओरसे नहीं कहते। उन्हें अपने पात्रों के द्वारा प्रसग रूपमें ही सामने रखा है। मे पनियाँ हैं- 1. सतहिं तरे सायर महि नाचा । बिनु सत वृद्दे थाह न पाया ।। जिंहि सत होइ सो लागे तीरा । सत कह ने धूड मश नीरा ॥ सत गुन खींचि तीर लइ लावा । सत छाड़े गुन तोरि बहावा ॥ सत संभार तो पावइ थाहा । बिनु सत थाह होइ अवगाहा ॥ २९७ २. हिरद बोल भार सह लीजा। हिरदै कह जीउ गरू न कीजा ॥ हिरद होह बुध करि उताना । हिरद नसेनी कहा सयाना । हिरद सो भूख न जाय भदायी । पाउनडोल जिंह चित गरुभाई ॥ २३९ ३. पिरम भार जिंह हिरदै लागी । नींद न जान बितत निसि जागी । सात सरग जो बरसहिं आई । पिरम भाग कैसें न बुझाई ॥ ३५३ दाऊद अपने सम्पूर्ण याव्यमें अत्यन्त सयत रहे हैं और किसी बानको बदा- चदा पर कहनेकी चेष्टा नहीं की है। कहनेका तात्पर्य यह नहीं कि उन्होंने अत्युक्तिः की ही नहीं है । अत्युक्ति कथन तो हिन्दी कवियों में स्वभाव-जन्य है और दाऊद उसके अपवाद नहीं है। यत्र तत्र अत्युक्ति विसरी मिलती हैं, पर एक स्थलको छोडकर अन्यत्र उनकी अत्युक्तियाँ ऐसी है जो अस्वाभाविक नहीं लगती। जिस स्थल की ओर हमारा सवेत है उसमें अतिरञ्जना इतनी अधिक है कि वह कृत्रिमताकी सीमाका अतिक्रमण करता जान पड़ता है। यह स्थल है मैंनाके विरह वेदनाका सन्देश ले जाने- वाले सिरजनकी यात्रा मार्गका । कवि कहता है- मिरप जो पन्य रॉय कर जाहै । धूम बरन होई जाय पराहैं ।। जावत पंखि ऊरध उह गये। किसन परन कोइला जर भये ॥ पालह सिरजन होइ सातारा | करिया दहै नाव गुनधारा ॥ सापर दाह मछ दह दहे। दहे करजया जरहर अहे ।। भस झार विरह के भयो । धरती दाह गगन लह गयी ।