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पाकिस्तान लौटे होंगे। यदि वे लाहोर समझाल्यमे नहीं है तो उन्हें क्राची सग्रहालयमें होना चाहिये। चन्दायनको विभिन्न प्रतियोवे काल निर्धारण सम्बधमें विचार करते समय मनेर प्रतिके सम्बधमें कुछ नहीं कहा गया। वस्तुन उस प्रतिवे पालका अनुमान इस तथ्यसे हो सकता है कि उसके हाशियेपर कुत्तबन रचित मिरगावतिकी कुछ पत्तियाँ हैं। कुतबन के स्वकथनानुमार उसकी रचना सय १५८७ (सन् १५१५ ई०)में हुई थी 1 अत इस प्रतिवी रचना इसके पश्चात् ही किसी समय हुई होगी। कितने समय बाद हुई यह प्रमाणाभाव कहना कठिन है। अनुमानका यदि सहारा लिया जाय तो उसे १६ वी शतीके अत अथवा सतरहवीं शती आरम्भमे रखा जा सकता है। माताप्रसाद गुप्तने अपने लोरकहाकी भूमिका में लिखा है कि भोपाल एम० एच० तैमरी ने उन्हे चन्दायनये किसी प्रतिके दो धोके दो फोटो भेजे थे और लिस था कि रद्द प्रति प्रारम्भने एक आध पृष्ठको छोडकर पूरी है। मातामसादका यह भी कहना है कि उस प्रतिका जो विवरण उहें पास हुआ था, उससे जात होता है कि उसमें रचना क्मसे दम १४० उन्द अब भी शेष हैं। इस सम्बन्धमे ज्ञातव्य यह है कि बम्बईवाली प्रति प्रिन्स आव वेल्स म्यूजियमने इन्हीं तैमूरीके माध्यमसे प्राप्त की है । सम्भवत उन्होंने माता प्रसाद गुपको इसी प्रतिके पृष्ठों के फोटो और विवरण भेजे थे। इस प्रतिमे केवल ६८ कड़वक (६४ चदायन और ४ मैना रातके) थे । अत १४. छन्द (क्डवक) होनेकी कल्पना निराधार है । रहस्यवादी प्रवृतिका अभाव चन्दायनम सूफी तन्योंके अभावकी ओर सवेत करते हुए मैने यह मत व्यक्त किया है कि दाऊदवे सम्मुख काव्य रचनाये समय कोई मूसी दर्शन नहीं पा, लोक प्रचलित यथाको काव्य रूपमें उपस्थित करना ही अभीष्ट था (पृ० ६२)। सैयद हसन असकरीने भी मनेर प्रतिपर विचार करते हुए कुछ इसी प्रकारका मत इन शब्दोमें स्यक्त किया है—जायसीसे भिन्न मौन्यानाने अपनेसे केवल लोक प्रचलित विश्वास तथा हिन्दुओंके धर्माख्यातक ही सीमित रखा है। विश्वनाथ प्रसादने भी हमारे विचारोंका समर्थन किया है। उनका कहना है.सूफी काव्य परम्पराम इस पुस्तकका इतना महत्व होनेपर भी इसके जो अश अभीतक प्रात हुए हैं, उसमें रहस्यवादरे कोई स्पष्ट सकेत नहीं मिलते। यो स्थान स्थानपर 'प्रेमकी पौर'का तो वर्णन आया है, परन्तु उसमे कहीं ऐसी आभास नही मिलता, जिगमें इस हकीकीरा आधार छोड़कर मजाजीकी उडान मरी गयी हो। किन्तु इस कथन साथ ही उहोंने यह भी रहा १-रेण्ट सटीज, पटना कालेन, १९५५ ६०, ५०१५। २-भागा सस्सरण, मनावना, पृ० १५!