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इन्दर गोयन्द चन्दरावल (हाके लिये पारसी क्रिया गोयन्द) छन्द योजना सूपी कवियोंके हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्योंके सम्बन्धमे हिन्दीके विद्वानोंका एक मत है कि उनकी रचना दोहे और चौपाइयों में हुई है। यही मत वासुदेवशरण अप्रवालने पदमावत सम्बन्धमें व्यक्त किया है किन्तु उनका ध्यान इस तथ्यकी ओर भी गया है कि जहाँ पदमावतकी चौपाई-उन्द मात्रा और तुक दोनों दृष्टियाँसे नियमित है, वहीं दोहोंके विपयमें यह बात सरी नहीं उतरती। दाहा एफ मात्रिक छन्द है, जिसकी गणना अर्ध-सम जातिके छन्दोंमें की जाती है। इसके पहले और तीसरे चरणोमें तेरह-तेरह मात्राएँ और दूसरे और चौथे चरणमें ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं । पहले और तीसरे पादकी तुक नहीं मिलती। दूसरे और चांथे चरणोकी तुक मिलती है । किन्तु जायसीके सैकड़ों ऐसे दोहे हैं, जिनके पहले और तीसरे चरणोमें यह नियम सरा नहीं उतरता। उनमें तेरहकी जगह सोलह मात्राएँ पायी जाती हैं। इसका उन्होंने यह कहकर समाधान कर लिया है कि दोहेके अनेक भेदोमेंसे यह भी एक मान्य भेद हिन्दी काव्यमें उस समय स्वीकृत था, जिसकी परम्परा मुल्ला दाउदके समयसे जायसीके कालतक अवश्य विद्यमान थी। बलुतः यह बात नहीं है । हमारे साहित्यकारीका ध्यान इस तस्यकी ओर नहीं जा सका है कि सूपी पवियोंने अपनी रचना पद्धति अपनश कायोंसे प्राप्त की है और उन्होंने अपने कान्योंया सयोजन फड़वकोंके रूपमे किया है। स्वयंभूने अपने स्वयम्भू छन्दसमें कड़वककी गे परिभाषा दी है, उसके. अनुसार प्रत्येक कड़वको शरीरमै आठ यमक और अन्तमें एक पत्ता होता है जिसे भुवा, भुवक अथवा उडानका कहते है। प्रत्येक यमरमे १६-१६ मानाओंवाले दो पद होते है । हेमचन्द्र ने अपने छन्दोनुशासनमे इसी तम्यको तनिक भिन्न दगले कदा है। उनपे मतानुसार कड़वककै शरीरमें ४-४ पत्तियोफे चार छन्द अर्थात् पचियाँ होती है। सोलह मानाओं वाले पापी बात केवल सिद्धान्त रूप है: कचियोंने सोलह मात्राओं वाले पदोके अतिरिक्त पन्द्रह मात्रा वाले पदोंपा भी व्यवहार प्रचुर मात्रामें लिया है। अतः रडक्कम प्रयुक्त होने वाले पद साधारणतया तीन रूपमें पाये जाते हैं:- १. पद्धडिका-सोल्द मानाओंका पद । इसमे अन्तिम चार मानाऑफा रूप लघु गुरु लघु (जगण) होता है। २. वदनक-सोलह मानाओंका पद । इसमें चार मानाएँ गुर, स्पु, ल्यु (भगण) होती हैं । कहीं कहीं इसका दो गुरु रूप भी पाये जाते हैं। १. पदमावत, झाँसी, स० २०१२, प्राशन, पृ० १२॥