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धोबीके पाटेकी तरह पीटने । नायक जब उसे बचाने आया तो लोरिक बोला-उन दोनोंको ल्ड लेने दो । एक मेरी पत्नी है, दूसरी मेरी प्रेयसी । __ मजरिया जब जी भर चन्दैनीको मार चुकी तो लोरिक्ने उससे घरका हाल- चाल पूछ । तम उसने बताया कि सारा घर वरवाद हो गया। रहनेको घर नहीं है । सारी गाये बिखर गयी । तुम्हारे भाई मर गये। में घर घर दही बेचती और अनाज छाटती हूँ। यह सुनकर लोरिकने अपनी बहनसे अपने पतिको बुला लानेको कहा । भाईके शोषमें उसने अपने बाल मुडा बाले। यहा- शुद्ध होनेपर साधु होकर घूमूंगा और अपनी गायोंको ढूंढकर लाऊँगा। फिर लोरिक अपनी गायोंको हूँढने निकला और उन्हें ढूंढकर ले आया। लोरिकको आते देस मजरिया उसके स्वागतको बड़ी और पैर धोने के लिए पानी लेकर चली । मगर भूलसे गदा पानी ले आयी। लोरिकने जब यह देखा तो उसमा मन बहुत दुखी हुआ और वह उसे छोड़कर चला गया। फिर कभी लौटकर नहीं आया। हीरालाल काव्योपाध्यायने अपने छत्तीसगढ़ी बोलीका व्याकरण में इस कथाका एक दूसरा स्प दिया है। उसका अग्रेजी अनुवाद जे० ए० मियर्सन ने प्रकाशित किया है। यह रूप उपर्युस रूपी अपेक्षा छोटा और कुछ मिन है। उनके अनुसार क्या इस प्रकार है- बावनबीर नामक एक अत्यन्त चतुर और बल्वान पुरुष था, जो छ मासतक बेखबर सोता रहता और बुर साता-पीता न था। उसे चाहे जितना मारो पीरो, वह जागता ही न था। लोगोंका कहना तो यह भी है कि उसके पैरों में एक मला था, जिसमें नौ सौ बिच्छू रहते थे पर कभी उसे उनका पता ही न चला। उसकी पत्नीका नाम चन्दा था। वह अत्यन्त रूपवती थी और एक ऊँचे महमे रहती थी, जिसके चारों ओर कठोर पहरा लगा रहता था। एक दिन जय यावन प्रगाढ निद्राम सो रहा था, चन्दाने अपने गॉवके होरी नामय बरेठ (धोबी) को देखा और वह उसपर मोहित हो गयी। परत वे दोनों एक दूसरेसे बाहर इधर उधर मिलने लगे। एक दिन चन्दाने रोरीको अपने महल्में बुलाया। उसवा महल बहुत ऊँचेपर था और नीचे सतर्व पहरेदार पहरा दिया परते थे। ___ोरी महमें जानेका निश्चय पर महल्ये निकट गया । उसे वहाँ पहले मनुप्य पद्दरा देते हुए मिले। उन्हें उसने रुपये देकर मिला लिया। उसरे पादमें गायें पहरा देती मिली। उन्दे उसने खूब चारा सिराया। तीसरे ड्योढीपर बन्दर पहरा दे रहे थे। उन्हें लोरीने मिठाई और चना दिया। उसरे बाद वह उस ड्योढीपर आया, जहाँ बाप पहरा दे रहे थे। उन्हें उसने दूध पिलाया। इस प्रकार यह चन्दा महलके नीचे जा पहुंचा। १. जनस आव द शिवारिक सोमायरी भार पगाल, भाग ५०(१८९०), सण्ड १, पृ. १४८१५३ ।