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एक ही क्डवकको दो पृष्टोपर दो शीर्षकोंसे दिया है और कहीं दो कडवकोकी पत्तियोंको मिलाकर एक कडवको रूपमें लिखा है। इस प्रतिमी विशेषता यह है कि प्रत्येक पृष्ठके हाशियेपर कुतरनहत मिरगारती के कडक अक्ति हैं। दूसरी बात यह है कि युछ पनों वाय पृष्ठये वाय हाशियेमें ऊपर पृष्ठ मुख्या अकित हैं। ये पृष्ठ संख्या १४८ १४९, १५२ १५५, १५९ १६१, १६३, २७० हैं। शेष पृठोपर कोई पृष्ठ संख्या नहीं है। ऐसे पृष्टॉपर असकरीने अपने अनुमानये आधारपर कहीं अगरेजी और कही फारसी अवाम पृष्ठ सख्या दार दी है। यद्यपि उनी दी हुई पृष्ठ सस्थाएँ त्रुटिपूर्ण हैं तथापि पृष्ठ निर्देशनके निमित्त उन्हें इस ग्रन्थम स्वीकार कर लिया गया है। पंजाय प्रति-भारत पाकिस्तानके विभाजनसे पूर्व यह प्रति लाहौर सेण्ट्रल संग्रहालयमें थी और उत्त संग्रहालयकी चित्र सूचीके अनुसार वहाँ इमम २४ पृष्ट थे। देश विभाजनके साथ-साथ जर उत्त संग्रहालयकी वस्तुओंका भी पॅग्वारा हुआ वो ये पृष्ठ भी बँट गये। कहा जाता है कि भारतको १० और पाकिस्तानको ४ पृष्ठ मिले । भारतको प्राप्त दस पृ तो पजाब राजसीय सग्रहालय, पटियालाम सुरतित हैं, किन्तु पाकिस्तान को मिले चौदह पृष्ठोमर केवल दसर ही फोटो हम लाहौर सग्रहाल्यसे उपलब्ध हो सके। शेष चार पृष्ठोंक सम्बन्धमे कोई जानकारी प्रास न हो सकी। इस प्रतिके प्रत्येक परपर एक ओर चित्र और दूसरी ओर काव्यका पारसी लिपिम आलेखन है। ये सभी पृष्ठ अति जीर्ण अवस्था में हैं। ये कटे-फ्टे तो है ही, साथ ही लाल स्याहीसे लिसे अश भी पीछे पड़ गये है। इस कारण इन पृष्ठोंका पाठोद्धार सम्भव नहीं है। उनसे केवल रत पृष्ठीका अनुमानमान हो सकता है। इस प्रतिमें प्रत्येक पृष्ठमे १० पत्तियाँ हैं। आरम्मकी दो पत्तियों में पारसी भाषामें शीर्षक और शेपमें एक फडवक है। तीसरा यमक दो पत्ति योंमे विभाजित करके लिया गया है । इस प्रतिय पटियाल और लाहौर सग्रहालय स्थित पृष्ठोंका यहाँ ब्रमश 'प' और 'ल' द्वारा निर्देशन किया गया है। काशी प्रति-इस प्रतिके येवल ६ प्र उपलब्ध हैं, जो काशी विश्वविद्यालय कला संग्रहालय भारत कला भवन में है । ये पृक्ष भी सचिन है अर्थात् इनके एक ओर चिर और दूसरी ओर काव्यका आलेखन है। प्रत्येक पृष्ट पर फारसी लिपिमें दस पत्तियाँ हैं, जिनमें ऊपर दो पत्तियों में पारसी भापाम शीर्पक है । इन परियों से किसी में भी लिपिकाल सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त न होनेसे उनके काल निर्णयकी समस्या जग्लि जान पडती है। किन्तु कतिपय बाह्य प्रमाणोसे उनके लिपि काल सम्बन्धम बहुत चुछ अनुमान किया जा सकता है। ये सभी प्रतियाँ पारसी लिपिकी नस्प शैलीम लिखी गयी हैं। इस शैलीने ऐखनका प्रचलन भारतमें मुगल सम्राट अकरके शासनकाल्ये आरम्भ होते-होते अर्थात् साल्हवीं शताब्दी मध्यता समाप्त हो गया था। इस कारण लिपिरे आधारपर निस्सकोच कहा जा सकता है कि ये सभी प्रतियाँ किसी भी अस्थामें सोलहवीं शताब्दीये तृतीय चरणरे