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२२ २४५ (रीरेण्ड्स १९३) व आमदने मादर लरक व आरती क्दन मियाने लोक व मैना (लोरककी माँका आकर लोरक-मैनामें मुलह कराना) सुन सरभर सोलिन तस धाई । जस भगिरथ यह लगिन आयी ॥१ लोरह अजकर बकति न आया । अनहे इहँ भव कही क्हावा ॥२ केस गही गर माथ ओनायसि । कूच छाल दुहुँ गालहि आयसि ॥३ जाकर चेरि पियाहिं पानी । ताकर घिय चेरी क्हें आनी ॥४ औ तिह ऊपर परस ॲगारा । दहि दहि कोयला भई सो नारा ॥५ आग लाइ घर अपनें, लोर दहाँ दिमि धाबहु ।६ बेग पैस जर मैंनॉ, अपरित छिडक चुझावहु ॥७ २४६ (रोलैण्ड्स १९४) आरती क्दने लाय' या मैना अन गुफ्तार मादर (माँके कहने पर लोरक मैनाश सुलह करना) लोरफ हरकि सोलिन घर आई । वीर नारि कँठ लाई मनाई ॥१ भुजा झेलि धनि सेज वैसारे । पान वीर मुस दीनि सँवारे ।।२ रँग विनु पान खियावसि मोही । सो रेंग इहें न देरोउँ तोही ॥३ रंग दिनु पातहिं भाउ बनाया । तुम लोरक रॅग अनतं आवर४ घर तर आछौं मैना जहाँ । चित मन धावड चाँदा जहाँ ॥५ सेज न भाउ रूचि न कामिनि, जो न होइ मन हाथ ६ सो तै नैन न देस, तिल न रहै सग साथ ।।७