मेहता मनोविज्ञान के पण्डित थे। मालती के मनोरहस्यों को समझ रहे थे। ईर्ष्या का ऐसा अनोखा उदाहरण उन्हें कभी न मिला था। उस रमणी में, जो इतनी मृदु-स्वभाव, इतनी उदार, इतनी प्रसन्नमुख थी, ईर्ष्या की ऐसी प्रचण्ड ज्वाला!
बोले––कुछ भी कहो, मैं उसे न जाने दूँगा। उसकी सेवाओं और कृपाओं का यह पुरस्कार देकर मैं अपनी नज़रों में नीच नहीं बन सकता।
मेहता के स्वर में कुछ ऐसा तेज था कि मालती धीरे से उठी और चलने को तैयार हो गयी।
उसने जलकर कहा––अच्छा, तो मैं ही जाती हूँ, तुम उसके चरणों की पूजा करके पीछे आना।
मालती दो–तीन क़दम चली गयी, तो मेहता ने युवती से कहा––अब मुझे आज्ञा दो बहन; तुम्हारा यह नेह, तुम्हारी निःस्वार्थ सेवा हमेशा याद रहेगी।
युवती ने दोनों हाथों से, सजलनेत्र होकर उन्हें प्रणाम किया और झोपड़ी के अन्दर चली गई।
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दूसरी टोली राय साहब और खन्ना की थी। राय साहब तो अपने उसी रेशमी कुरते और रेशमी चादर में थे। मगर खन्ना ने शिकारी सूट डाला था, जो शायद आज ही के लिए वनवाया गया था; क्योंकि खन्ना को आसामियों के शिकार से इतनी फुरसत कहाँ थी कि जानवरों का शिकार करते। खन्ना ठिगने, इकहरे, रूपवान आदमी थे; गेहुँआँ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, मुँह पर चेचक के दाग़; बात-चीत में बड़े कुशल।
कुछ दूर चलने के बाद खन्ना ने मिस्टर मेहता का ज़िक्र छेड़ दिया जो कल से ही उनके मस्तिष्क में राहु की भाँति समाये हुए थे।
बोले––यह मेहता भी कुछ अजीब आदमी है। मुझे तो कुछ बना हुआ मालूम होता है।
राय साहब मेहता की इज्जत करते थे और उन्हें सच्चा और निष्कपट आदमी समझते थे; पर खन्ना से लेन-देन का व्यवहार था, कुछ स्वभाव से शान्ति-प्रिय भी थे, विरोध न कर सके। बोले––मैं तो उन्हें केवल मनोरंजन की वस्तु समझता हूँ। कभी उनसे बहस नहीं करता। और करना भी चाहूँ तो उतनी विद्या कहाँ से लाऊँ। जिसने जीवन के क्षेत्र में कभी क़दम ही नहीं रखा, वह अगर जीवन के विषय में कोई नया सिद्धान्त अलापता है, तो मुझे उस पर हँसी आती है। मजे से एक हजार माहवार फटकारते हैं, न जोरू न जाँता, न कोई चिन्ता न बाधा, वह दर्शन न बघारें, तो कौन बघारे? आप निर्द्वन्द्व रहकर जीवन को सम्पूर्ण बनाने का स्वप्न देखते हैं। ऐसे आदमी से क्या बहस की जाय।
'मैंने सुना चरित्र का अच्छा नहीं है।'
'बेफ़िक्री में चरित्र अच्छा रह ही कैसे सकता है। समाज में रहो और समाज के कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन करो तब पता चले!'