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गोदान
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पहुँची, lएक वन-पुष्प की भाँति धूप में खिली हुई,दूसरी गमले के फूल की भाँति धूप में मुरझायी और निर्जीव।

मालती ने बेदिली के साथ कहा-—पीपल की छाँह बहुत अच्छी लग रही है क्या? और यहाँ भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं।

युवती दो बड़े-बड़े मटके उठा लायी और बोली--तुम जब तक यहीं बैठो,मैं अभी दौड़कर पानी लाती हूँ,फिर चूल्हा जला दूंगी;और मेरे हाथ का खाओ,तो मै एक छन में बाटियाँ सेंक दूंगी,नहीं,अपने आप सेंक लेना। हाँ,गेहूँ का आटा मेरे घर में नहीं है और यहाँ कहीं कोई दूकान भी नहीं है कि ला दूंँ।

मालती को मेहता पर क्रोध आ रहा था। बोली--तुम यहाँ क्यों आकर पड़ रहे?

मेहता ने चिढ़ाते हुए कहा--एक दिन ज़रा इस जीवन का आनन्द भी तो उठाओ। देखो,मक्के की रोटियों में कितना स्वाद है।

'मुझसे मक्के की रोटियाँ खायी ही न जायेंगी, और किसी तरह निगल भी जाऊँ तो हज़म न होंगी। तुम्हारे साथ आकर मैं बहुत पछता रही हूँ। रास्ते-भर दौड़ा के मार डाला और अब यहाँ लाकर पटक दिया!'

मेहता ने कपड़े उतार दिये थे और केवल एक नीला जाँघिया पहने बैठे हुए थे। युवती को मटके ले जाते देखा,तो उसके हाथ से मटके छीन लिये और कुएंँ पर पानी भरने चले। दर्शन के गहरे अध्ययन में भी उन्होंने अपने स्वास्थ्य की रक्षा की थी और दोनों मटके लेकर चलते हुए उनकी मांसल भुजाएँ और चौड़ी छाती और मछलीदार जाँघे किसी यूनानी प्रतिमा के सुगठित अंगों की भाँति उनके पुरुपार्थ का परिचय दे रही थीं। युवती उन्हें पानी खींचते हुए अनुराग भरी आँखों से देख रही थी। वह अब उसकी दया के पात्र नहीं,श्रद्धा के पात्र हो गये थे।

कुआँ बहुत गहरा था,कोई साठ हाथ,मटके भारी थे और मेहता कसरत का अभ्यास करते रहने पर भी एक मटका खीचते-खीचते शिथिल हो गये। युवती ने दौड़कर उनके हाथ से रस्सी छीन ली और बोली--तुमसे न खिचेगा। तुम जाकर खाट पर बैठो,मैं खीचे लेती हूँ।

मेहता अपने पुरुषत्व का यह अपमान न सह सके। रस्सी उसके हाथ से फिर ले ली और जोर मारकर एक क्षण में दूसरा मटका भी खींच लिया और दोनों हाथों में दोनों मटके लिये आकर झोंपड़ी के द्वार पर खड़े हो गये। युवती ने चटपट आग जलायी,लालसर के पंख झुलस डाले। छुरे से उसकी वोटियाँ बनायीं और चूल्हे में आग जलाकर मांस चढ़ा दिया और चूल्हे के दूसरे ऐले पर कढ़ाई में दूध उवालने लगी|

और मालती भौंहें चढ़ाये,खाट पर खिन्न-मन पड़ी इस तरह यह दृश्य देख रही थी मानो उसके ऑपरेशन की तैयारी हो रही हो।

मेहता झोपड़ी के द्वार पर खड़े होकर, युवती के गृह-कौशल को अनुरक्त नेत्रों से देखते हुए बोले--मुझे भी तो कोई काम बताओ,मैं क्या करूँ?