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गो-दान
 

पानी कम होने लगा था। मालती ने प्रसन्न होकर कहा--अब तुम मुझे उतार दो।

'नहीं-नहीं, चुपचाप बैठी रहो। कहीं आगे कोई गढ़ा मिल जाय।'

'तुम समझते होगे,यह कितनी स्वार्थिनी है।'

'मुझे इसकी मजदूरी दे देना।'

मालती के मन में गुदगुदी हुई।

'क्या मज़दूरी लोगे?'

'यही कि जब तुम्हें जीवन में ऐसा ही कोई अवसर आये तो मुझे बुला लेना।'

किनारे आ गये। मालती ने रेत पर अपनी साड़ी का पानी निचोड़ा,जूते का पानी निकाला,मुंँह-हाथ धोया; पर ये शब्द अपने रहस्यमय आशय के साथ उसके सामने नाचते रहे।

उसने इस अनुभव का आनन्द उठाते हुए कहा--यह दिन याद रहेगा।

मेहता ने पूछा--तुम बहुत डर रही थीं?

'पहले तो डरी;लेकिन फिर मुझे विश्वास हो गया कि तुम हम दोनों की रक्षा कर सकते हो।'

मेहता ने गर्व से मालती को देखा--उनके मुख पर परिश्रम की लाली के माथ तेज था।

'मुझे यह सुनकर कितना आनन्द आ रहा है,तुम यह समझ सकोगी मालती?'

'तुमने समझाया कब। उलटे और जंगलों में घसीटते फिरते हो;और अभी फिर लौटती बार यही नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफ़न में जान डाल दी। मुझे तुम्हारे साथ रहना पड़े,तो एक दिन न पटे।'

मेहता मुस्कराये। इन शब्दों का संकेत खूब समझ रहे थे।

'तुम मुझे इतना दुष्ट समझती हो! और जो मै कहूँ कि तुमसे प्रेम करता हूँ। मुझसे विवाह करोगी?'

‘ऐसे काठ-कठोर से कौन विवाह करेगा! रात-दिन जलाकर मार डालोगे।'

और मधुर नेत्रों से देखा, मानो कह रही हो--इसका आशय तुम खूब समझते हो। इतने बुदू नहीं हो।

मेहता ने जैसे सचेत होकर कहा--तुम सच कहती हो मालती। मैं किसी रमणी को प्रसन्न नहीं रख सकता। मुझसे कोई स्त्री प्रेम का स्वाँग नहीं कर सकती। मैं उसके अन्तस्तल तक पहुँच जाऊँगा। फिर मुझे उससे अरुचि हो जायगी।

मालती काँप उठी। इन शब्दों में कितना सत्य था।

उसने पूछा--बताओ,तुम कैसे प्रेम से सन्तुष्ट होगे?

'बस यही कि जो मन में हो,वही मुख पर हो! मेरे लिए रंग-रूप और हाव-भाव और नाज़ो-अन्दाज़ का मूल्य इतना ही है,जितना होना चाहिए। मैं वह भोजन चाहता हूँ, जिससे आत्मा की तृप्ति हो। उत्तेजक और शोषक पदार्थों की मुझे जरूरत नहीं।'

मालती ने ओठ सिकोड़कर ऊपर को साँस खींचते हुए कहा-तुमसे कोई पेश न