'नहीं-नहीं, तुम फिसल जाओगी। धार तेज़ है।'
'कोई हरज़ नहीं,मैं आ रही हूँ। आगे न बढ़ना, खबरदार।'
मालती साड़ी ऊपर चढ़ाकर नाले में पैठी। मगर दस हाथ आते-आते पानी उसकी कमर तक आ गया।
मेहता घबड़ाये। दोनों हाथ से उसे लौट जाने को कहते हुए बोले--तुम यहाँ मत आओ मालती! यहाँ तुम्हारी गर्दन तक पानी है।
मालती ने एक क़दम और आगे बढ़कर कहा--होने दो। तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर जाऊँ तो तुम्हारे पास ही मरूँगी।
मालती पेट तक पानी में थी। धार इतनी तेज़ थी कि मालूम होता था,क़दम उखड़ा। मेहता लौट पड़े और मालती को एक हाथ से पकड़ लिया।
मालती ने नशीली आँखों में रोष भरकर कहा--मैंने तुम्हारे-जैसा बेदर्द आदमी कभी न देखा था। बिल्कुल पत्थर हो। खैर,आज सता लो,जितना सताते बने;मै भी कभी समझूँगी।
मालती के पाँव उखड़ते हुए मालूम हुए। वह बन्दूक सँभालती हुई उनसे चिमट गयी।
मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा--तुम यहाँ खड़ी नहीं रह सकती। मैं तुम्हें अपने कन्धे पर बिठाये लेता हूँ।
मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा--तो उस पार जाना क्या इतना ज़रूरी है?
मेहता ने कुछ उत्तर न दिया।बन्दूक़ कनपटी से कन्धे पर दबा ली और मालती को दोनों हाथों से उठाकर कन्धे पर बैठा लिया।
मालती अपनी पुलक को छिपाती हुई बोली--अगर कोई देख ले?
'भद्दा तो लगता है।'
दो पग के बाद उसने करुण स्वर में कहा--अच्छा बताओ,मैं यहीं पानी में डूब जाऊँ,तो तुम्हें रंज हो या न हो? मैं तो समझती हूँ,तुम्हें बिलकुल रंज न होगा।
मेहता ने आहत स्वर से कहा--तुम समझती हो,मैं आदमी नहीं हूँ?
'मैं तो यही समझती हूँ,क्यों छिपाऊँ।'
'सच कहती हो मालती?'
'तुम क्या समझते हो?'
'मैं!कभी बतलाऊँगा।'
पानी मेहता के गर्दन तक आ गया।कहीं अगला क़दम उठाते ही सिर तक न आ जाय।मालती का हृदय धक्-धक् करने लगा।बोली,मेहता,ईश्वर के लिए अब आगे मत जाओ,नहीं,मैं पानी में कूद पडू़ँगी।
उस संकट में मालती को ईश्वर याद आया, जिसका वह मज़ाक उड़ाया करती थी। जानती थी,ईश्वर कहीं बैठा नहीं है जो आकर उन्हें उबार लेगा;लेकिन मन को जिस अवलम्बन और शक्ति की ज़रूरत थी,वह और कहाँ मिल सकती थी।