लूट लेगा और तुम्हारा माशूक़ को उठा ले जायगा। खून करने में अमको लुतफ़ आता है। अम खून का दरिया बहा देगा!
मजलिस पर आतंक छा गया। मिस मालती अपना चहकना भूल गयीं। खन्ना की पिंडलियाँ काँप रही थीं। बेचारे चोट-चपेट के भय से एकमंजिले बंँगले में रहते थे। जीने पर चढ़ना उनके लिए सूली पर चढ़ने से कम न था। गरमी में भी डर के मारे कमरे में सोते थे। राय साहब को ठकुराई का अभिमान था। वह अपने ही गाँव में एक पठान से डर जाना हास्यास्पद समझते थे, लेकिन उसकी बन्दूक को क्या करते। उन्होंने ज़रा भी चीं-चपड़ किया और इसने बन्दूक चलायी। हूश तो होते ही हैं ये सब, और निशाना भी इन सबों का कितना अचूक होता है; अगर उसके हाथ में बन्दूक न होती, तो राय साहब उससे सींग मिलाने को भी तैयार हो जाते। मुश्किल यही थी कि दुष्ट किसी को बाहर नहीं जाने देता। नहीं, दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो जाता और इसके पूरे जत्थे को पीट-पाटकर रख देता।
आखिर उन्होंने दिल मजबूत किया और जान पर खेलकर बोले––हमने आपसे कह दिया कि हम चोर-डाकू नहीं हैं। मैं यहाँ की कौंसिल का मेम्बर हूँ और यह देवीजी लखनऊ की सुप्रसिद्ध डाक्टर हैं। यहाँ सभी शरीफ़ और इज्जतदार लोग जमा हैं। हमें बिलकुल खबर नहीं, आपके आदमियों को किसने लूटा? आप जाकर थाने में रपट कीजिए।
खान ने जमीन पर पैर पटके, पैंतरे बदले और बन्दूक को कंधे से उतारकर हाथ में लेता हुआ दहाड़ा––मत बक-बक करो। काउन्सिल का मेम्बर को अम इस तरह पैरों से कुचल देता है।(जमीन पर पाँव रगड़ता है)। अमारा हाथ मज़बूत है, अमारा दिल मजबूत है, अम खुदा ताला के सिवा और किसी से नयीं डरता। तुम अमारा रुपया नहीं देगा तो अम (राय साहब की तरफ़ इशारा कर) अभी तुमको क़तल कर देगा।
अपनी तरफ़ बन्दूक की दो नली देखकर राय साहब झुककर मेज़ के बराबर आ गये। अजीब मुसीबत में जान फंसी थी। शैतान बरबस कहे जाता है, तुमने हमारे रुपए लूट लिये। न कुछ सुनता है, न कुछ समझता है, न किसी को बाहर जाने-आने देता है। नौकरचाकर, सिपाही-प्यादे, सब धनुष-यज्ञ देखने में मग्न थे। ज़मींदारों के नौकर यों भी आलसी और काम-चोर होते ही हैं, जब तक दस दफ़े न पुकारा जाय बोलते ही नहीं; और इस वक्त तो वे एक शुभ काम में लगे हुए थे। धनुष-यज्ञ उनके लिए केवल तमाशा नहीं, भगवान की लीला थी; अगर एक आदमी भी इधर आ जाता, तो सिपाहियों को खबर हो जाती और दम-भर में खान का सारा खानपन निकल जाता, डाढ़ी के एक-एक बाल नुच जाते। कितना गुस्सेवर है। होते भी तो जल्लाद हैं। न मरने का ग़म, न जीने की खुशी।
मिर्ज़ा साहब ने चकित नेत्रों से देखा––क्या बताऊँ, कुछ अक्ल काम नहीं करती। मैं आज अपना पिस्तौल घर ही छोड़ आया, नहीं मज़ा चखा देता।
खन्ना रोना मुँह बनाकर बोले––कुछ रुपए देकर किसी तरह इस बला को टालिए।