मिसेज़ खन्ना को कविता लिखने का शौक था। इस नाते से सम्पादकजी कभी-कभी उनसे मिल आया करते थे; लेकिन घर के काम-धन्धों में व्यस्त रहने के कारण इधर बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं सकी थी। सच बात तो यह है कि सम्पादकजी ने ही उन्हें प्रोत्साहित करके कवि बनाया था। सच्ची प्रतिभा उनमें बहुत कम थी।
'क्या लिखू कुछ सूझता ही नहीं। आपने कभी मिस मालती से कुछ लिखने को नहीं कहा?'
सम्पादकजी उपेक्षा भाव से बोले--उनका समय मूल्यवान है कामिनी देवी! लिखते तो वह लोग हैं,जिनके अन्दर कुछ दर्द है,अनुराग है,लगन है,विचार है,जिन्होंने धन और भोग-विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया,वह क्या लिखेंगे।
कामिनी ने ईर्ष्या-मिश्रित विनोद से कहा--अगर आप उनसे कुछ लिखा सकें,तो आपका प्रचार दुगना हो जाय। लखनऊ में तो ऐसा कोई रसिक नहीं है,जो आपका ग्राहक न बन जाय।
'अगर धन मेरे जीवन का आदर्श होता,तो आज मैं इस दशा में न होता। मुझे भी धन कमाने की कला आती है। आज चाहूँ,तो लाखों कमा सकता हूँ;लेकिन यहाँ तो धन को कभी कुछ समझा ही नहीं। साहित्य की सेवा अपने जीवन का ध्येय है और रहेगा।'
{{Gap{{'कम-से-कम मेरा नाम तो ग्राहकों में लिखवा दीजिए।'
'आपका नाम ग्राहकों में नहीं,संरक्षकों में लिखूगा।'
'संरक्षकों में रानियों-महारानियों को रखिए,जिनकी थोड़ी-सी खुशामद करके आप अपने पत्र को लाभ की चीज बना सकते हैं।'
'मेरी रानी-महारानी आप है। मैं तो आपके सामने किसी रानी-महारानी की हक़ीकत नहीं समझता। जिसमें दया और विवेक है,वही मेरी रानी है। खुशामद से मुझे घृणा है।'
कामिनी ने चुटकी ली-लेकिन मेरी खुशामद तो आप कर रहे हैं सम्पादकजी!
सम्पादकजी ने गम्भीर होकर श्रद्धा-पूर्ण स्वर में कहा-यह खुशामद नहीं है देवीजी,हृदय के सच्चे उद्गार हैं।
राय साहब ने पुकारा--मम्पादकजी,जरा इधर आइएगा। मिस मालती आपसे कुछ कहना चाहती हैं।
सम्पादकजी की वह सारी अकड़ गायब हो गयी। नम्रता और विनय की मूर्ति बने हुए आकर खड़े हो गये। मालती ने उन्हें सदय नेत्रों से देखकर कहा-मैं अभी कह रही थी कि दुनिया में मुझे सबसे ज्यादा डर सम्पादकों से लगता है। आप लोग जिसे चाहें,एक क्षण में बिगाड़ दें। मुझी से चीफ़ सेक्रेटरी साहव ने एक बार कहा-अगर मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल में बन्द कर सकूँ,तो अपने को भाग्यवान समझू।
ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूंछे खड़ी हो गयीं। आँखों में गर्व की ज्योति चमक उठी। यों वह बहुत ही शान्त प्रकृति के आदमी थे;लेकिन ललकार सुनकर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो जाता था। दृढ़ता भरे स्वर में बोले-इस कृपा के लिए आपका