यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गोदान
५९
 


समाज व्यक्ति ही से बनता है।और व्यक्ति को भूलकर हम किसी व्यवस्था पर विचार नहीं कर सकते। मैं इसलिए इतना वेतन लेता हूँ कि मेरा इस व्यवस्था पर विश्वास नहीं है।

सम्पादकजी को अचम्भा हुआ--अच्छा,तो आप वर्तमान व्यवस्था के समर्थक हैं?

'मैं इस सिद्धान्त का समर्थक हूँ कि संसार में छोटे-बड़े हमेशा रहेंगे,और उन्हें हमेशा रहना चाहिए। इसे मिटाने की चेष्टा करना मानव-जाति के सर्वनाश का कारण होगा।'

कुश्ती का जोड़ वदल गया। राय साह्व किनारे खड़े हो गये। सम्पादक जी मैदान में उतरे--आप इस बीसवीं शताब्दी में भी ऊँच-नीच का भेद मानते हैं।

'जी हाँ,मानता हूँ और बड़े जोरों से मानता हूँ। जिस मत के आप समर्थक हैं,वह भी तो कोई नयी चीज़ नहीं। जब से मनुष्य में ममत्व का विकास हुआ,तभी उस मत का जन्म हुआ। बुद्ध और प्लेटो और ईसा सभी समाज में समता के प्रवर्तक थे। यूनानी और रोमन और सीरियाई,सभी सभ्यताओं ने उसकी परीक्षा की पर अप्राकृतिक होने के कारण कभी वह स्थायी न बन सकी।


'आपकी वातें सुनकर मुझे आश्चर्य हो रहा है।'

'आश्चर्य अज्ञान का दूसरा नाम है।'

'मैं आपका कृतज्ञ हूँ!अगर आप इस विषय पर कोई लेखमाला शुरू कर दें।'

'जी, मैं इतना अहमक़ नहीं हूँ,अच्छी रकम दिलवाइए, तो अलबत्ता।'

{{Gap{{'आपने सिद्धान्त ही ऐसा लिया है कि खुले खज़ाने पब्लिक को लूट सकते हैं।'

'मुझमें और आपमें अन्तर इतना ही है कि मैं जो कुछ मानता हूँ उस पर चलता हूँ। आप लोग मानते कुछ हैं,करते कुछ हैं। धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं। लेकिन बुद्धि को,चरित्र को,और रूप को,प्रतिभा को और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है। छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही तो नहीं होता। मैंने बड़े-बड़े धन-कुबेरों को भिक्षकों के सामने घुटने टेकते देखा है,और आपने भी देखा होगा। रूप के चौखट पर बड़े-बड़े महीप नाक रगड़ते हैं। क्या यह सामाजिक विषमता नहीं है?आप रूस की मिसाल देंगे। वहाँ इसके सिवाय और क्या है कि मिल के मालिक ने राज कर्मचारी का रूप ले लिया है। बुद्धि तब भी राज करती थी,अब भी करती है और हमेशा करेगी।'

तश्तरी में पान आ गये थे। राय साहब ने मेहमानों को पान और इलायची देते हुए कहा--बुद्धि अगर स्वार्थ से मुक्त हो, तो हमें उसकी प्रभुता मानने में कोई आपत्ति नहीं। समाजवाद का यही आदर्श है। हम साधु-महात्माओं के सामने इसीलिए सिर झुकाते हैं कि उनमें त्याग का बल है। इसी तरह हम बुद्धि के हाथ में अधिकार भी देना चाहते हैं,सम्मान भी,नेतृत्व भी;लेकिन सम्पत्ति किसी तरह नहीं। बुद्धि का अधिकार और सम्मान व्यक्ति के साथ चला जाता है,लेकिन उसकी सम्पत्ति विप बोने के लिए,उसके बाद और भी प्रबल हो जाती है।