प्रतिक्षण उसकी धमनियों में फैलता जाता था। उसने सो जाने का प्रयास किया,पर नींद न आयी। बैलों के पास जाकर उन्हें सहलाने लगा,विष शान्त न हुआ। दूसरी चिलम भरी;लेकिन उसमें भी कुछ रस न था। विप ने जैसे चेतना को आक्रान्त कर दिया हो। जैसे नशे में चेतना एकांगी हो जाती है,जैसे फैला हुआ पानी एक दिशा में बहकर वेगवान हो जाता है, वही मनोवृत्ति उसकी हो रही थी। उसी उन्माद की दशा में वह अन्दर गया। अभी द्वार खुला हुआ था। आँगन में एक किनारे चटाई पर लेटी हुई धनिया सोना से देह दबवा रही थी और रूपा जो रोज़ साँझ होते ही सो जाती थी,आज खड़ी गाय का मुंह सहला रही थी। होरी ने जाकर गाय को खूटे से खोल लिया और द्वार की ओर ले चला। वह इसी वक्त गाय को भोला के घर पहुंचाने का दृढ़ निश्चय कर चुका था। इतना बड़ा कलंक सिर पर लेकर वह अब गाय को घर में नहीं रख सकता। किसी तरह नहीं।
धनिया ने पूछा--कहाँ लिये जाते हो रात को? होरी ने एक पग बढ़ाकर कहा-ले जाता हूँ भोला के घर। लौटा दूंगा।
धनिया को विस्मय हुआ,उठकर सामने आ गयी और बोली-लौटा क्यों दोगे? लौटाने के लिए ही लाये थे।
'हाँ इसके लौटा देने में ही कुशल है?'
'क्यों बात क्या है? इतने अरमान से लाये और अब लौटाने जा रहे हो? क्या भोला रुपए माँगते हैं?'
'नहीं, भोला यहाँ कब आया?'
'तो फिर क्या बात हुई?'
'क्या करोगी पूछकर?'
धनिया ने लपककर पगहिया उसके हाथ से छीन ली। उसकी चपल बुद्धि ने जैसे उड़ती हुई चिड़िया पकड़ ली। बोली-तुम्हें भाइयों का डर हो,तो जाकर उनके पैरों पर गिरो। मैं किसी से नहीं डरती। अगर हमारी बढ़ती देखकर किसी की छाती फटती है,तो फट जाय,मुझे परवाह नहीं है।
होरी ने विनीत स्वर में कहा-धीरे-धीरे बोल महरानी! कोई सुने,तो कहे,ये सब इतनी रात गये लड़ रहे हैं! मैं अपने कानों से क्या सुन आया हूँ,तू क्या जाने! यहाँ चरचा हो रही है कि मैंने अलग होते समय रुपए दबा लिये थे और भाइयों को धोखा दिया था,यही रुपए अब निकल रहे हैं।'
'हीरा कहता होगा?'
'साग गाँव कह रहा है! हीरा को क्यों वदनाम करूँ।'
'सारा गाँव नहीं कह रहा है,अकेला हीरा कह रहा है। मैं अभी जाकर पूछती हूँ न कि तुम्हारे वाप कितने रुपए छोड़कर मरे थे। डाढ़ीजारों के पीछे हम बरबाद हो गये,सारी जिन्दगी मिट्टी में मिला दी,पाल-पोसकर संडा किया,और अब हम बेईमान है!मैं कहे देती हैं,अगर गाय घर के बाहर निकली, तो अनर्थ हो जायगा। रख लिये