जायगी;लेकिन कौन जाने। यहाँ तो एक धेला भी हाथ में आ जाय,तो गाँव में शोर मच जाता है,और लेनदार चारों तरफ से नोचने लगते हैं;ये पाँच रुपए तो वह शगुन में देगा,चाहे कुछ हो जाय;मगर अभी जिन्दगी के दो बड़े-बड़े काम सिर पर सवार थे। गोबर और सोना का विवाह। बहुत हाथ बाँधने पर भी तीन सौ से कम खर्च न होंगे। ये तीन सौ किसके घर से आयेंगे? कितना चाहता है कि किसी से एक पैसा कर्ज न ले,जिमका आता है,उसका पाई-पाई चुका दे;लेकिन हर तरह का कष्ट उठाने पर भी गला नहीं छूटता। इसी तरह सूद बढ़ता जायगा और एक दिन उसका घर-द्वार सब नीलाम हो जायगा,उसके बाल-बच्चे निराश्रय होकर भीख माँगते फिरेंगे। होरी जब काम-धन्धे से छुट्टी पाकर चिलम पीने लगता था,तो यह चिन्ता एक काली दीवार की भाँति चारों ओर से घेर लेती थी,जिसमें से निकलने की उसे कोई गली न सूझती थी। अगर सन्तोप था तो यही कि यह विपत्ति अकेले उसी के सिर न थी। प्रायः सभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी। शोभा और हीरा को उससे अलग हए अ कुल तीन साल हुए थे;मगर दोनों पर चार-चार सौ का बोझ लद गया। झींगुर दो हल की खेती करता है। उस पर एक हजार से कुछ बेसी ही देना है। जियावन महतो के घर भिखारी भीख भी नहीं पाता;लेकिन करजे का कोई ठिकाना नहीं। यहाँ कौन वचा है।
सहसा सोना और रूपा दोनों दौड़ी हुई आयीं और एक साथ बोलीं--भैया गाय ला रहे हैं। आगे-आगे गाय,पीछे-पीछे भैया है।
रूपा ने पहले गोवर को आते देखा था। यह खवर सुनाने की सुर्खरूई उसे मिलनी चाहिए थी। सोना बराबर की हिस्सेदार हुई जाती है,यह उससे कैसे सहा जाता।
उसने आगे बढ़कर कहा--पहले मैंने देखा था। तभी दौड़ी। बहन ने तो पीछे से देखा।
सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी। बोली-तूने भैया को कहाँ पहचाना। तू तो कहती थी,कोई गाय भागी आ रही है। मैने ही कहा,भैया हैं।
दोनों फिर वाग की तरफ दौड़ी,गाय का स्वागत करने के लिए।
धनिया और होरी दोनो गाय बाँधने का प्रबन्ध करने लगे। होरी बोला-चलो,जल्दी से नाँद गाड़ दें।
धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी-नहीं,पहले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोलकर रख दें। वेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जाकर नाँद गाड़ो,मै घोलती हूँ।
'कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूंढ़ ले। उसके गले में बाँधेगे।'
'सोना कहाँ गयी। सहुआइन की दुकान से थोड़ा-सा काला डोरा मँगवा लो,गाय को नजर बहुत लगती है।'
'आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गयी।'