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३६२ गोदान

'बड़ी लू लगती होगी।'

'लू क्या लगेगी ? अच्छी छाँह है।'

'मैं डरती हूँ, कहीं तुम बीमार न पड़ जाओ।'

'चल; बीमार वह पड़ते हैं, जिन्हें बीमार पड़ने की फुरसत होती है। यहाँ तो यह धुन है कि अबकी गोबर आये, तो रामसेवक के आधे रुपए जमा रहें। कुछ वह भी लायेगा ही। बस इस साल इस रिन से गला छूट जाय, तो दूसरी जिन्दगी हो।'

'गोबर की अबकी बड़ी याद आती है। कितना सुशील हो गया है।'

'चलती बेर पैरों पर गिर पड़ा।'

'मंगल वहाँ से आया तो कितना तैयार था। यहाँ आकर दुबला हो गया है।'

'वहाँ दूध, मक्खन, क्या नहीं पाता था? यहाँ रोटी मिल जाय वही बहुत है। ठीकेदार से रुपए मिले और गाय लाया।'

'गाय तो कभी आ गयी होती, लेकिन तुम जब कहना मानो। अपनी खेती तो संँभाले न सँभलती थी, पुनिया का भार भी अपने सिर ले लिया।'

'क्या करता, अपना घरम भी तो कुछ है। हीरा ने नालायकी की तो उसके बाल-बच्चों को सँभालनेवाला तो कोई चाहिए ही था। कौन था मेरे सिवा, बता ? मैं न मदद करता, तो आज उनकी क्या गति होती, सोच। इतना सब करने पर भी तो मँगरू ने उस पर नालिश कर ही दी।'

'रुपए गाड़कर रखेगी तो क्या नालिश न होगी ?'

'क्या बकती है। खेती से पेट चल जाय यही बहुत है। गाड़कर कोई क्या रखेगा।'

'हीरा तो जैसे संसार ही से चला गया।'

'मेरा मन तो कहता है कि वह आवेगा, कभी न कभी जरूर।'

दोनों सोये। होरी अँधेरे मुंँह उठा तो देखता है कि हीरा सामने खड़ा है, बाल बढ़े हुए, कपड़े तार-तार, मुंँह सूखा हुआ, देह में रक्त और मांस का नाम नहीं, जैसे क़द भी छोटा हो गया है। दौड़कर होरी के क़दमों पर गिर पड़ा।

होरी ने उसे छाती से लगाकर कहा--तुम तो बिलकुल घुल गय हीरा ! कब आये ? आज तुम्हारी बार-बार याद आ रही थी। बीमार हो क्या ?

आज उसकी आँखों में वह हीरा न था जिसने उसकी ज़िन्दगी तल्ख कर दी थी, बल्कि वह हीरा था, जो बे-माँ-बाप का छोटा-सा बालक था। बीच के ये पचीस-तीस साल जैसे मिट गये, उनका कोई चिन्ह भी नहीं था।

हीरा ने कुछ जवाब न दिया। खड़ा रो रहा था।

होरी ने उसका हाथ पकड़कर गद्गद कण्ठ से कहा--क्यों रोते हो भैया, आदमी से भूल-चूक होती ही है। कहाँ रहा इतने दिन ?

हीरा कातर स्वर में बोला--कहाँ बताऊँ दादा ! बस यही समझ लो कि तुम्हारे दर्शन बदे थे, बच गया। हत्या सिर पर सवार थी। ऐसा लगता था कि वह गऊ मेरे सामने खड़ी है; हरदम, सोते-जागते, कभी आँखों से ओझल न होती। मैं पागल हो