गोदान | ३५३ |
होरी ने बड़ी-बड़ी चोट सही थी, मगर यह चोट सबसे गहरी थी। आज उसके ऐसे दिन आ गये हैं कि उससे लड़की बेचने की बात कही जाती है और उसमें इन्कार करने का साहस नहीं है। ग्लानि से उसका सिर झुक गया।
दातादीन ने एक मिनट के बाद पूछा--तो क्या कहते हो?
होरी ने साफ जवाब न दिया। बोला--सोचकर कहूँगा।
'इसमें सोचने की क्या बात है?'
'धनिया से भी तो पूंँछ लूंँ।'
'तुम राजी हो कि नहीं।'
'ज़रा सोच लेने दो महाराज। आज तक कुल में कभी ऐसा नहीं हुआ। उसकी मरजाद भी तो रखना है।'
'पाँच-छ: दिन के अन्दर मुझे जवाब दे देना। ऐसा न हो, तुम सोचते ही रहो और बेदखली आ जाय।'
दातादीन चले गये। होरी की ओर से उन्हें कोई अन्देशा न था। अन्देशा था धनिया की ओर से। उसकी नाक बड़ी लम्बी है। चाहे मिट जाय, मरजाद न छोड़ेगी।
मगर होरी हाँ कर ले तो वह भी रो-धोकर मान ही जायगी। खेतों के निकलने में भी तो मरजाद बिगड़ती है।
धनिया ने आकर पूछा--पंडित क्यों आये थे?
'कुछ नहीं, यही बेदखली की बातचीत थी।'
'आँसू पोंछने आये होंगे, यह तो न होगा कि सौ रुपए उधार दे दें।'
'माँगने का मुंँह भी तो नहीं।'
'तो यहाँ आते ही क्यों हैं ?'
'रुपिया की सगाई की बात थी।'
'किससे?'
'रामसेवक को जानती है ? उन्हीं से।'
'मैंने उन्हें कब देखा, हाँ नाम बहुत दिन से सुनती हूँ। वह तो बूढ़ा होगा।'
'बूढ़ा नहीं है, हाँ अधेड़ है।'
'तुमने पंडित को फटकारा नहीं। मुझसे कहते तो ऐसा जवाब देती कि याद करते।'
'फटकारा नहीं; लेकिन इन्कार कर दिया। कहते थे, ब्याह भी बिना खरच-बरच के हो जायगा; और खेत भी बच जायँगे।'
'साफ-साफ क्यों नहीं बोलते कि लड़की बेचने को कहते थे। कैसे इस बूढ़े का हियाव पड़ा?'
लेकिन होरी इस प्रश्न पर जितना ही विचार करता, उतना ही उसका दुराग्रह कम होता जाता था। कुल-मर्यादा की लाज उसे कुछ कम न थी, लेकिन जिसे असाध्य रोग ने ग्रस लिया हो, वह खाद्य-अखाद्य की परवाह कब करता है ? दातादीन के सामने होरी ने कुछ ऐसा भाव प्रकट किया था, जिसे स्वीकृति नहीं कहा जा सकता, मगर भीतर