३४२ | गोदान |
मालती ने आर्द्र होकर कहा--तुम जानने हो, तुममे ज्यादा निकट संसार में मेरा कोई दूसरा नही है। मैंने बहुत दिन हुए, अपने को तुम्हारे चरणों पर समर्पित कर दिया। तुम मेरे पथ-प्रदर्गक हो, मेरे देवता हो, मेरे गुरु हो। तुम्हें मुझसे कुछ याचना करने की जरूरत नहीं, मुझे केवल संकेत कर देने की ज़रूरत है। जब मुझे तुम्हारे दर्शन न हुए थे और मैंने तुम्हें पहचाना न था, भोग और आत्म-मेवा ही मेरे जीवन का इाट था। तुमने आकर उसे प्रेरणा दी, स्थिरता दी। मैं तुम्हारे एहमान कभी नहीं भूल सकती। मैंने नदी की नटवाली तुम्हारी बातें गाँठ बाँध ली। दुःख यही हुआ कि तुमने भी मुझे वही समझा जो कोई दूसरा पुरुष समझता, जिसकी मुझे तुमसे आशा न थी। उसका दायित्य मेरे ऊपर है, यह मैं जानती हूँ; लेकिन तुम्हारा अमूल्य प्रेम पाकर भी मैं वही बनी रहंँगी, ऐमा समझकर तुमने मेरे माथ अन्याय किया। मैं इस समय कितने गर्व का अनुभव कर रही हूंँ, यह तुम नही समझ मकते। तुम्हारा प्रेम और विश्वास पाकर अब मेरे लिए कुछ भी शेष नही रह गया है। यह वरदान मेरे जीवन को सार्थक कर देने के लिए काफी है। यह मेरी पूर्णता है।
यह कहते-कहते मालती के मन में ऐमा अनुराग उठा कि मेहता के सीने से लिपट जाय। भीतर की भावनाएंँ बाहर आकर मानो मत्य हो गयी थी। उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। जिस आनन्द को उसने दुर्लभ समझ रखा था, वह इतना सुलभ इतना समीप है ! और हृदय का वह आह्लाद मुख पर आकर उसे ऐमी गोभा देने लगा कि मेहता को उसमे देवत्व की आभा दिखी। यह नारी है ; या मगल की, पवित्रता की और त्याग की प्रतिमा।
उसी वक्त झुनिया जागकर उठ बैठी और मेहता अपने कमरे में चले गये और फिर दो सप्ताह तक मालती मे कुछ बातचीत करने का अवसर उन्हें न मिला। मालती कभी उनमे एकान्त मे न मिलती। मालती के वह शब्द उनके हृदय में गूंँजते रहते। उनमें कितनी सान्त्वना थी, कितनी विनय थी, कितना नशा था !
दो सप्ताह में मंगल अच्छा हो गया। हाँ, मुंँह पर चेचक के दाग न भर सके। उस दिन मालती ने आम-पास के लड़कों को भर पेट मिठाई खिलाई और जो मनौतियांँ कर रखी थी, वह भी पूरी की। इस त्याग के जीवन में कितना आनन्द है, इसका अब उसे अनुभव हो रहा था। झुनिया और गोबर का हर्ष मानो उसके भीतर प्रतिबिम्बिन हो रहा था। दूसरों के कष्ट-निवारण मे उमने जिम मुख और उल्लास का अनुभव किया, वह कभी भोग-विलाम के जीवन मे न किया था। वह लालसा अब उन फलों की भांँति क्षीण हो गयी थी जिसमे फल लग रहे हों। अब वह उस दर्जे से आगे निकल चुकी थी, जब मनुष्य स्थल आनन्द को परम मुख मानता है। यह आनन्द अब उसे तुच्छ पतन की ओर ले जानेवाला, कुछ हलका, बल्कि बीभत्स-सा लगता था। उस बड़े बंँगले में रहने का क्या आनन्द जब उसके आस-पास मिट्टी के झोपड़े मानो विलाप कर रहे हो। कार पर चढ़कर अब उसे गर्व नहीं होता। मंगल जैसे अबोध बालक ने उसके जीवन मे कितना प्रकाश डाल दिया, उसके मामने सच्चे आनन्द का द्वार-सा खोल दिया।