गोदान | ३४१ |
और बच्चा अनायास ही रो रहा था। शायद उसने कोई स्वप्न देखा था, या और किसी वजह से डर गया था। मालती चुमकारती थी, थपकती थी, तसवीरें दिखाती थी, गोद में लेकर टहलती थी, पर बच्चा चुप होने का नाम न लेता था। मालती का यह अटूट वात्सल्य, यह अदम्य मातृ-भाव देखकर उनकी आँखें सजल हो गयीं। मन में ऐसा पुलक उठा कि अन्दर जाकर मालती के चरणों को हृदय से लगा लें। अन्तस्तल से अनुराग में डूबे हुए शब्दों का एक समूह मचल पड़ा--प्रिये, मेरे स्वर्ग की देवी, मेरी रानी, डारलिंग...
और उसी प्रमोन्माद में उन्होंने पुकारा--मालती, ज़रा द्वार खोल दो।
मालती ने आकर द्वार खोल दिया और उनकी ओर जिज्ञासा की आँखों से देखा।
मेहता ने पूछा--क्या झुनिया नहीं उठी? यह तो बहुत रो रहा है।
मालती ने समवेदना भरे स्वर में कहा--आज आठवाँ दिन है, पीड़ा अधिक होगी। इसी से।
'तो लाओ, मैं कुछ देर टहला दूंँ, तुम थक गयी हो।'
मालती ने मुस्कराकर कहा--तुम्हें जरा ही देर में गुस्सा आ जायगा !
बात सच थी; मगर अपनी कमजोरी को कौन स्वीकार करता है ? मेहता ने जिद करके कहा--तुमने मुझे इतना हलका समझ लिया है ?
मालती ने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उनकी गोद में जाते ही वह एकदम चुप हो गया। बालकों में जो एक अन्तर्ज्ञान होता है, उसने उमे बता दिया, अब रोने में तुम्हारा कोई फायदा नहीं। यह नया आदमी स्त्री नही, पुरुष है और पुरुष गुम्मेवर होता है और निर्दयी भी होता है, और चारपाई पर लेटाकर, या बाहर अँधेरे में सुलाकर दर चला जा सकता है और किसी को पास आने भी न देगा।
मेहता ने विजय-गर्व मे कहा--देवा, कैमा चुप कर दिया।
मालती ने विनोद किया--हाँ, तुम इस कला में कुशल हो। कहांँ सीखी ?
'तुमसे।'
'मैं स्त्री हूँ और मुझ पर विश्वास नहीं किया जा सकता।'
मेहता ने लज्जित होकर कहा--मालती, मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, मेरे उन शब्दों को भूल जाओ। इन कई महीनों में मैं कितना पछताया हूँ, कितना लज्जित हुआ हूंँ, कितना दुखी हुआ हूँ, शायद तुम इसका अन्दाज़ न कर सको।
मालती ने सरल भाव में कहा--मैं तो भूल गयी, मच कहती हूँ।
'मुझे कैमे विश्वास आये ?'
'उसका प्रमाण यही है कि हम दोनों एक ही घर में रहते हैं, एक साथ खाते हैं, हमते हैं, बोलने है।'
'क्या मुझे कुछ याचना करने की अनुमति न दोगी?'
उन्होंने मंगल को खाट पर लिटा दिया, जहाँ वह दबककर सो रहा। और मालती की ओर प्रार्थी आँखों मे देखा जैसे उमी अनुमति पर उनका सब कुछ टिका हुआ हो।