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गोदान ३३१

थी कि रूप के बाजार में वही स्त्रियाँ आती हैं, जिन्हें या तो अपने घर में किसी कारण से सम्मान-पूर्ण आश्रय नहीं मिलता, या जो आर्थिक कष्टों से मजबूर हो जाती हैं, और अगर यह दोनों प्रश्न हल कर दिये जायँ, तो बहुत कम औरतें इस भाँति पतित हों।

मेहता ने अन्य विचारवान् सज्जनों की भाँति इस प्रश्न पर काफी विचार किया था और उनका खयाल था कि मुख्यतः मन के संस्कार और भोग-लालसा ही औरतों को इस ओर खींचती है। इसी बात पर दोनों मित्रों में बहस छिड़ गयी। दोनों अपनेअपने पक्ष पर अड़ गये।

मेहता ने मुट्ठी बाँधकर हवा में पटकते हुए कहा--आपने इस प्रश्न पर ठण्ढे दिल से गौर नहीं किया। रोज़ी के लिए और बहुत से ज़रिये हैं। मगर ऐश की भूख रोटियों से नहीं जाती। उसके लिए दुनिया के अच्छे-से-अच्छे पदार्थ चाहिए। जब तक समाज की व्यवस्था ऊपर से नीचे तक बदल न डाली जाय, इस तरह की मण्डली से कोई फायदा न होगा।

मिर्जा ने मूँछे खड़ी की--और मैं कहता हूँ कि यह महज़ रोजी का सवाल है। हाँ, यह सवाल सभी आदमियों के लिए एक-सा नहीं है। मजदूर के लिए वह महज़ आटे-दाल और एक फूस की झोपड़ी का सवाल है। एक वकील के लिए वह एक कार और बॅगले और खिदमतगारों का सवाल है। आदमी महज़ रोटी नहीं चाहता, और भी बहुत-सी चीजें चाहना है. अगर औरतों के सामने भी वह प्रश्न तरह-तरह की सूरतों में आता है, तो उनका क्या कुसूर है ?

डाक्टर मेहता अगर ज़रा गौर करते, तो उन्हें मालूम होता कि उनमें और मिर्जा में कोई भेद नहीं, केवल शब्दों का हेर-फेर है; पर बहस की गर्मी में गौर करने का धैर्य कहाँ ? गर्म होकर बोले--मुआफ़ कीजिए, मिर्जा़ साहब, जब तक दुनिया में दौलतवाले रहेंगे, वेश्याएँ भी रहेंगी। मण्डली अगर सफल भी हो जाय, हालाँकि मुझे उसमें बहुत सन्देह है, तो आप दस-पाँच औरतों से ज्यादा उसमें कभी न ले सकेंगे, और वह भी थोड़े दिनों के लिए। सभी औरतों में नाट्य करने की शक्ति नहीं होती, उसी तरह जैसे सभी आदमी कवि नहीं हो सकते। और यह भी मान लें कि वेश्याएँ आपकी मण्डली में स्थायी रूप से टिक जायँगी, तो भी बाज़ार में उनकी जगह खाली न रहेगी। जड़ पर जब तक कुल्हाड़े न चलेंगे, पत्तियाँ तोड़ने से कोई नतीजा नहीं। दौलतवालों में कभी-कभी ऐसे लोग निकल आते हैं, जो सब कुछ त्याग कर खुदा की याद में जा बैठते हैं; मगर दौलत का राज्य बदस्तूर कायम है। उममें जरा भी कमजोरी नहीं आने पाई।

मिर्जा़ को मेहता की हठधर्मी पर दुःख हुआ। इतना पढ़ा-लिखा विचारवान् आदमी इस तरह की बातें करे ! समाज की व्यवस्था क्या असानी से बदल जायगी? वह तो सदियों का मुआमला है। तब तक क्या यह अनर्थ होने दिया जाय ? उसकी रोक-थाम न की जाय, इन अबलाओं को मर्दो की लिप्मा का शिकार होने दिया जाय? क्यों न शेर को पिंजरे में बंद कर दिया जाय कि वह दाँत और नाखून होते हुए भी किसी को हानि न पहुँचा सके। क्यों उस वक्त तक चुपचाप बैठा रहा जाय, जब तक शेर अहिंसा