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गोदान ३२९

वह आकर अपनी कार में बैठी, हाकिम-ज़िला के बँगले पर पहुँचकर इस कांड की सूचना दी और अपनी कोठी में चली आयी। तब से स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे थे। दिग्विजयसिंह रिवालवर लिये उसकी ताक में फिरा करते और वह भी अपनी रक्षा के लिए दो पहलवान ठाकुरों को अपने साथ लिये रहती थी। और राय साहब ने सुख का जो स्वर्ग बनाया था, उसे अपनी ज़िन्दगी में ही ध्वंस होते देख रहे थे। और अब संसार से निराश होकर उनकी आत्मा अंतर्मुखी होती जाती थी। अब तक अभिलाषाओं से जीवन के लिए प्रेरणा मिलती रहती थी। उधर का रास्ता बन्द हो जाने पर उनका मन आप ही आप भक्ति की ओर झुका, जो अभिलाषाओं से कहीं बढ़कर सत्य था। जिस नयी जायदाद के आसरे पर कर्ज लिये थे, वह जायदाद कर्ज की पुरौती किये बिना ही हाथ से निकल गयी थी और वह बोझ सिर पर लदा हआ था। मिनिस्ट्री से ज़रूर अच्छी रकम मिलती थी। मगर वह सारी की सारी उस मर्यादा का पालन करने में ही उड़ जाती थी और राय साहब को अपना राजसी ठाट निभाने के लिए वही असामियों पर इज़ाफ़ा और बेदखली और नज़राना करना और लेना पड़ता था, जिससे उन्हें घृणा थी। वह प्रजा को कष्ट न देना चाहते थे। उनकी दगा पर उन्हें दया आती थी, लेकिन अपनी ज़रूरतों से हैरान थे। मुश्किल यह थी कि उपासना और भक्ति में भी उन्हें शान्ति न मिलती थी। वह मोह को छोड़ना चाहते थे; पर मोह उन्हें न छोड़ता था और इस खींच-तान में उन्हें अपमान, ग्लानि और अशान्ति से छुटकारा न मिलता था। और जब आत्मा में शान्ति नहीं, तो देह कैसे स्वस्थ रहती? निरोग रहने का सब उपाय करने पर भी एक न एक बाधा गले पड़ी रहती थी। रसोई में सभी तरह के पकवान बनते थे; पर उनके लिए वही मूंग की दाल और फुलके थे। अपने और भाइयों को देखते थे जो उनसे भी ज्यादा मक़रूज, अपमानित और शोकग्रस्त थे, जिनके भोग-विलास में, ठाट-बाट में किसी तरह की कमी न थी; मगर इस तरह की बेहयाई उनके बस में न थी। उनके मन के ऊँचे संस्कारों का ध्वंस न हुआ था। पर-पीड़ा, मक्कारी, निर्लज्जता और अत्याचार को वह ताल्लुकेदारी की शोभा और रोब-दाव का नाम देकर अपनी आत्मा को सन्तुष्ट न कर सकते थे, और यही उनकी सबसे बड़ी हार थी।


३२

मिर्जा़ खुर्शद ने अस्पताल से निकलकर एक नया काम शुरू कर दिया था। निश्चिन्त बैठना उनके स्वभाव में न था। यह काम क्या था? नगर की वेश्याओं की एक नाटक-मण्डली बनाना। अपने अच्छे दिनों में उन्होंने खूब ऐयाशी की थी और इन दिनों अस्पताल के एकान्त में घावों की पीड़ाएँ सहते-सहते उनकी आत्मा निष्ठावान् हो गयी थी। उस जीवन की याद करके उन्हें गहरी मनोव्यथा होती थी। उस वक्त अगर उन्हें समझ होती, तो वह प्राणियों का कितना उपकार कर सकते थे; कितनों के शोक और दरिद्रता का भार हलका कर सकते थे; मगर वह धन उन्होंने ऐयाशी में