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गोदान ३२७

राय साहब काँप उठे। उनके मन में भी इस तरह की बात आयी थी; लेकिन उन्होंने उसे आकार न लेने दिया था। (संस्कार दोनों व्यक्तियों के एक-से थे। गुफावासी मनुष्य दोनों ही व्यक्तियों में जीवित था। राय साहब ने उसे ऊपरी वस्त्रों से ढंक दिया था। राजा साहब में वह नग्न था। अपना बड़प्पन मिद्ध करने के उस अवसर को राय साहब छोड़ न सके।

जैसे लज्जित होकर बोले--लेकिन यह बीसवीं सदी है, बारहवीं नहीं। रुद्रपाल के ऊपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, मैं नहीं कह सकता; लेकिन मानवता की दृष्टि से . . .

राजा साहब ने बात काटकर कहा--आप मानवता लिये फिरते हैं और यह नहीं देखते कि संसार में आज भी मनुष्य की पशुता ही उसकी मानवता पर विजय पा रही है। नहीं, राष्ट्रों में लड़ाइयाँ क्यों होती ? पंचायतों से मामले न तय हो जाते ? जब तक मनुष्य रहेगा, उसकी पशुता भी रहेगी।

छोटी-मोटी बहस छिड़ गयी और विवाह के रूप में आकर अन्त में वितंडा बन गयी और राजा साहब नाराज होकर चले गये। दूसरे दिन राय साहब ने भी नैनीताल को प्रस्थान किया। और उसके एक दिन बाद रुद्रपाल ने सरोज के साथ इंग्लैण्ड की राह ली। अब उनमें पिता-पुत्र का नाता न था। प्रतिद्वन्द्वी हो गये थे। मिस्टर तंखा अव रुद्रपाल के सलाहकार और पैरोकार थे। उन्होंने रुद्रपाल की तरफ़ से राय साहब पर हिसाब-फ़हमी का दावा किया। राय साहब पर दस लाख की डिग्री हो गयी। उन्हें डिग्री का इतना दुःख न हुआ जितना अपने अपमान का। अपमान से भी बढ़कर दुःख था जीवन की संचित अभिलाषाओं के धूल में मिल जाने का और सबसे बड़ा दुःख था इस बात का कि अपने बेटे ने ही दग़ा दी। आज्ञाकारी पुत्र के पिता बनने का गौरव बड़ी निर्दयता के साथ उनके हाथ से छीन लिया गया था।

मगर अभी शायद उनके दुःख का प्याला भरा न था। जो कुछ कसर थी, वह लड़की और दामाद के सम्बन्ध-विच्छेद ने पूरी कर दी। साधारण हिन्दू वालिकाओं की तरह मीनाक्षी भी बेज़बान थी। बाप ने जिसके साथ ब्याह कर दिया, उसके साथ चली गयी; लेकिन स्त्री-पुरुष में प्रेम न था। दिग्विजयसिंह ऐयाश भी थे, शराबी भी। मीनाक्षी भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती थी। पुस्तकों और पत्रिकाओं से मन बहलाया करती थी। दिग्विजय की अवस्था तो तीस से अधिक न थी। पढ़ा-लिखा भी था; मगर बड़ा मग़रूर, अपनी कुल-प्रतिष्ठा की डींग मारनेवाला, स्वभाव का निर्दयी और कृपण। गाँव की नीच जाति की बहू-बेटियों पर डोरे डाला करता था। सोहबत भी नीचों की थी, जिनकी खुशामदों ने उसे और भी खुशामदपसन्द बना दिया था। मीनाक्षी ऐसे व्यक्ति का मम्मान दिल से न कर सकती थी। फिर पत्रों में स्त्रियों के अधिकारों की चर्चा पढ़-पढ़कर उसकी आँखें खुलने लगी थीं। वह जनाना क्लव में आने-जाने लगी। वहाँ कितनी ही शिक्षित ऊँचे कुल की महिलाएँ आती थीं। उनमें वोट और अधिकार और स्वाधीनता और नारी-जागृति की खूब चर्चा होती थी, जैसे पुरुषों के विरुद्ध कोई षड्यन्त्र रचा जा रहा हो। अधिकतर वही देवियाँ थीं जिनकी अपने पुरुषों से न पटती थी, जो नयी शिक्षा पाने