यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गोदान २८९

लचक है, और सुकुमारता है। मुखपर वह पीलापन नहीं रहा, खून की गुलाबी चमक है। उसका यौवन जो बन्द कोठरी में पड़े-पड़े अपमान और कलह से कुण्ठित हो गया था, वह मानो ताजी हवा और प्रकाश पाकर लहलहा उठा है। अब उसे किसी वात पर क्रोध नहीं आता। बच्चे के जरा-सा रोने पर जो वह झुंँझला उठा करती थी, अब जैसे उसके धैर्य और प्रेम का अन्त ही न था।

इसके खिलाफ़ गोबर अच्छा होते जाने पर भी कुछ उदास रहता था। जब हम अपने किसी प्रियजन पर अत्याचार करते है, और जब विपत्ति आ पड़ने से हममें इतनी शक्ति आ जाती है कि उसकी तीव्र व्यथा का अनुभव करें, तो उससे हमारी आत्मा में जागृति का उदय हो जाता है, और हम उस बेजा व्यवहार का प्रायश्चित्त करने के लिए तैयार हो जाते हैं। गोबर वही प्रायश्चित्त के लिए व्याकुल हो रहा था। अब उसके जीवन का रूप बिलकुल दूसरा होगा, जिसमें कटुता की जगह मृदुता होगी, अभिमान की जगह नम्रता। उसे अब ज्ञात हुआ कि सेवा करने का अवसर बड़े सौभाग्य से मिलता है, और वह इस अवसर को कभी न भूलेगा।



मिस्टर खन्ना को मजूरों की यह हड़ताल बिलकुल बेजा मालूम होती थी। उन्होंने हमेशा जनता के साथ मिले रहने की कोशिश की थी। वह अपने को जनता का ही आदमी समझते थे। पिछले कौमी आंदोलन में उन्होंने बड़ा जोश दिखाया था। ज़िले के प्रमुख नेता रहे थे, दो बार जेल गये थे और कई हज़ार का नुकसान उठाया था। अब भी वह मजूरों की शिकायतें सुनने को तैयार रहते थे; लेकिन यह तो नहीं हो सकता कि वह शक्कर-मिल के हिस्सेदारों के हित का विचार न करें। अपना स्वार्थ त्यागने को वह तैयार हो सकते थे, अगर उनकी ऊँची मनोवृत्तियों को स्पर्श किया जाता; लेकिन हिस्सेदारों के स्वार्थ की रक्षा न करना, यह तो अधर्म था। यह तो व्यापार है, कोई सदाव्रत नहीं कि सब कुछ मजूरों को ही बाँट दिया जाय। हिस्सेदारों को यह विश्वास दिलाकर रुपए लिये गये थे कि इस काम में पन्द्रह-बीस सैकड़े का लाभ है। अगर उन्हें दस सैकड़े भी न मिले, तो वे डायरेक्टरों को और विशेष कर मिस्टर खन्ना को धोखेबाज़ ही तो समझेंगे। फिर अपना वेतन वह कैसे कम कर सकते थे। और कम्पनियों को देखते उन्होंने अपना वेतन कम रखा था। केवल एक हज़ार रुपया महीना लेते थे। कुछ कमीशन भी मिल जाता था; मगर वह इतना लेते थे, तो मिल का संचालन भी करते थे। मजूर केवल हाथ से काम करते हैं। डायरेक्टर अपनी बुद्धि से, विद्या से, प्रतिभा से, प्रभाव से काम करता है। दोनों शक्तियों का मोल बराबर तो नहीं हो सकता। मजूरों को यह सन्तोष क्यों नहीं होता कि मन्दी का समय है, और चारों तरफ़ बेकारी फैली रहने के कारण आदमी सस्ते हो गये हैं। उन्हें तो एक की जगह पौन भी मिले, तो सन्तुष्ट रहना चाहिए था। और सच पूछो तो वे सन्तुष्ट हैं। उनका कोई क़सूर नहीं। वे तो मूर्ख हैं, बछिया के ताऊ। शरारत तो ओंकारनाथ