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गोदान २८७

झुनिया के रुके हुए आँसू उबल पड़े; कुछ बोल न सकी। भयभीत आँखों से चुहिया की ओर देखा।

चुहिया ने गोबर का मुंँह देखा, उसकी छाती पर हाथ रखा, और आश्वासन भरे स्वर में बोली--यह चार दिन में अच्छे हो जायेंगे। घबड़ा मत। कुशल हुई। तेरा सोहाग बलवान था। कई आदमी उसी दंगे में मर गये। घर में कुछ रुपये-पैसे हैं ?

झुनिया ने लज्जा से सिर हिला दिया।

'मैं लाये देती हूँ। थोड़ा-सा दूध लाकर गर्म कर ले।'

झुनिया ने उसके पाँव पकड़कर कहा--दीदी, तुम्हीं मेरी माता हो। मेरा दूसरा कोई नहीं है।

जाड़ों की उदास सन्ध्या आज और भी उदास मालूम हो रही थी। झुनिया ने चूल्हा जलाया और दूध उबालने लगी। चुहिया बरामदे में बच्चे को लिये खिला रही थी।

सहसा झुनिया भारी कण्ठ से बोली--मैं बड़ी अभागिन हूँ दीदी। मेरे मन में ऐसा आ रहा है, जैसे मेरे ही कारन इनकी यह दशा हुई है। जी कुढ़ता है, तब मन दुखी होता ही है, फिर गालियाँ भी निकलती हैं, सराप भी निकलता है। कौन जाने मेरी गालियों.......

इसके आगे वह कुछ न कह सकी। आवाज़ आँसुओं के रेले में वह गयी। चुहिया ने अंचल से उसके आँसू पोंछते हुए कहा--कैसी बातें सोचती है बेटी ! यह तेरे मिन्दूर का भाग है कि यह बच गये। मगर हाँ, इतना है कि आपस में लड़ाई हो, तो मुंँह से चाहे जितना बक ले, मन में कीना न पाले। बीज अन्दर पड़ा, तो अँखुआ निकले बिना नहीं रहता।

झुनिया ने कम्पन-भरे स्वर में पूछा--अब मैं क्या करूंँ दीदी ?

चुहिया ने ढाढ्स दिया--कुछ नहीं बेटी! भगवान का नाम ले। वही गरीबों की रक्षा करते हैं।

उसी समय गोबर ने आँखें खोली और झुनिया को सामने देखकर याचना भाव से क्षीण-स्वर में बोला--आज बहुत चोट खा गया झुनिया ! मैं किसी से कुछ नहीं बोला। सबों ने अनायास मुझे मारा। कहा-सुना माफ कर ! तुझे सताया था, उसी का यह फल मिला। थोड़ी देर का और मेहमान हूँ। अब न बचूँगा। मारे दरद के सारी देह फटी जाती है।

चुहिया ने अन्दर आकर कहा--चुपचाप पड़े रहो। बोलो-चालो नहीं। मरोगे नहीं, इसका मेरा जुम्मा।

गोबर के मुख पर आशा की रेखा झलक पड़ी। बोला--सच कहती हो, मैं मरूँगा नहीं ?

'हाँ, नहीं मरोगे। तुम्हें हुआ क्या है ? जरा सिर में चोट आ गयी है और हाथ की हड्डी उतर गयी है। ऐसी चोटें मरदों को रोज ही लगा करती हैं। इन चोटों से कोई नहीं मरता।'