२८६ | गोदान |
तरह भी न छोड़ना चाहते थे। भूखों मर जाने से या अपने बाल-बच्चों को भूखों मरते देखने से तो यह कहीं अच्छा था कि इस परिस्थिति से लड़कर मरें। दोनों दलों में फौजदारी हो गयी। 'बिजली'-सम्पादक तो भाग खड़े हुए, बेचारे मिर्जा़जी पिट गये और उनकी रक्षा करते हुए गोबर भी बुरी तरह घायल हो गया। मिर्जा़जी पहलवान आदमी थे और मँजे हुए फिकैत, अपने ऊपर कोई गहरा वार न पड़ने दिया। गोबर गँवार था। पूरा लट्ठ मारना जानता था; पर अपनी रक्षा करना न जानता था, जो लड़ाई में मारने से ज्यादा महत्त्व की बात है। उसके एक हाथ की हड्डी टूट गयी, सिर खुल गया और अन्त में वह वहीं ढेर हो गया। कन्धों पर अनगिनती लाठियाँ पड़ी थी, जिसमे उसका एक-एक अंग चूर हो गया था। हड़तालियों ने उसे गिरते देखा, तो भाग खड़े हुए। केवल दस-बारह जेंचे हुए आदमी मिर्जा को घेरकर खड़े रहे। नये आदमी विजयपताका उड़ाते हुए मिल में दाखिल हुए और पराजित हड़ताली अपने हताहतों को उठाउठाकर अस्पताल पहुंँचाने लगे; मगर अस्पताल में इतने आदमियों के लिए जगह न थी। मिर्जा़जी तो ले लिये गये। गोबर की मरहम-पट्टी करके उसके घर पहुंँचा दिया गया।
झुनिया ने गोबर की वह चेप्टाहीन लोथ देखी तो उसका नारीत्व जाग उठा। अब तक उसने उसे सबल के रूप में देखा था, जो उस पर शासन करता था, डाँटता था, मारता था। आज वह अपंग था, निस्सहाय था, दयनीय था। झुनिया ने खाट पर झुककर आँसू भरी आँखों मे गोबर को देखा और घर की दशा का खयाल करके उसे गोबर पर एक ईप्यामय क्रोध आया। गोबर जानता था कि घर में एक पैसा नहीं है वह यह भी जानता था कि कहीं से एक पैसा मिलने की आशा नहीं है। यह जानते हुए भी, उसके बार-बार समझाने पर भी, उसने यह विपत्ति अपने ऊपर ली। उमने कितनी बार कहा था--तुम इस झगड़े में न पड़ो, आग लगाने वाले आग लगाकर अलग हो जायेंगे, जायगी गरीबों के सिर; लेकिन वह कब उसकी सुनने लगा था। वह तो उसकी बैरिन थी। मित्र तो वह लोग थे, जो अब मजे से मोटरों में घम रहे हैं। उस क्रोध में एक प्रकार की तुष्टि थी, जैसे हम उन बच्चों को कुरसी में गिर पड़ते देखकर, जो बार-बार मना करने पर खड़े होने से बाज न आते थे, चिल्ला उठते हैं--अच्छा हुआ, बहुत अच्छा, तुम्हाग सिर क्यों न दो हो गया।
लेकिन एक ही क्षण में गोबर का करुण-क्रन्दन मुनकर उसकी सारी संज्ञा सिहर उठी। व्यथा में डूबे हुए यह शब्द उसके मुंँह से निकले--हाय-हाय ! सारी देह भुरकम हो गयी। सबों को तनिक भी दया न आयी।
वह उसी तरह बड़ी देर तक गोबर का मुंँह देखती रही। वह क्षीण होती हुई आशा से जीवन का कोई लक्षण पा लेना चाहती थी। और प्रति-क्षण उसका वैर्य अस्त होने वाले सूर्य की भाँति डूबता जाता था, और भविष्य का अन्धकार उसे अपने अन्दर समेटे लेता था।
सहसा चुहिया ने आकर पुकारा--गोबर का क्या हाल है, बहू ! मैंने तो अभी मुना। दूकान से दौड़ी आयी हूँ।