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गो-दान
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थे। एक लड़का भी था। भोला की लार टपक पड़ी। झटपट शिकार मार लाये। जब तक सगाई न हुई,उसका घर खोद डाला।

अभी तक उसके घर में जो कुछ था,बहुओं का था। जो चाहती थीं,करती थीं,जैसे चाहती थीं,रहती थीं। जंगी जब से अपनी स्त्री को लेकर लखनऊ चला गया था,कामता की बहू ही घर की स्वामिनी थी। पाँच-छ:महीनों में ही उसने तीस-चालीस रुपये अपने हाथ में कर लिये थे। सेर-आध सेर दूध-दही चोरी से बेच लेती थी। अव स्वामिनी हुई उसकी सौतेली सास। उसका नियंत्रण बहू को बुरा लगता था और आये दिन दोनों में तकरार होती रहती थी। यहाँ तक की औरतों के पीछे भोला और कामता में भी कहा-सुनी हो गयी। झगड़ा इतना बढ़ा कि अलग्योझे की नौबत आ गयी। और यह रीति सनातन से चली आयी है कि अलग्योझे के समय मार-पीट अवश्य हो। यहाँ उस रीति का पालन किया गया। कामता जवान आदमी था। भोला का उस पर जो कुछ दवाव था,वह पिता के नाते था;मगर नयी स्त्री लाकर बेटे से आदर पाने का अब उसे कोई हक न रहा था। कम-से-कम कामता इसे स्वीकार न करता था। उसने भोला को पटककर कई लातें जमायीं और घर से निकाल दिया। घर की चीजें न छूने दीं। गांववालों में भी किसी ने भोला का पक्ष न लिया। नयी सगाई ने उन्हें नक्कू बना दिया था। रात तो उन्होंने किसी तरह एक पेड़ के नीचे काटी,मुबह होते ही नोखेराम के पास जा पहुँचे और अपनी फरियाद मुनायी। भोला का गाँव भी उन्हीं के इलाके में था और इलाके-भर के मालिक-मुखिया जो कुछ थे,वही थे। नोखेराम को भोला पर तो क्या दया आती;पर उनके साथ एक चटपटी,रँगीली स्त्री देखी तो चटपट आश्रय देने पर राजी हो गये। जहाँ उनकी गायें बँधती थीं,वहीं एक कोठरी रहने को दे दी। अपने जानवरों की देख-भाल,सानी-भूसे के लिए उन्हें एकाएक एक जानकार आदमी की जरूरत मालूम होने लगी। भोला को तीन रुपया महीना और सेर-भर रोजाना पर नौकर रख लिया।

नोखेराम नाटे,मोटे,खल्वाट,लम्वी नाक और छोटी-छोटी आँखोंवाले साँवले आदमी थे। बड़ा-सा पग्गड़ बाँधते,नीचा कुरता पहनते और जाड़ों में लिहाफ ओढ़कर बाहर आते-जाते थे। उन्हें तेल की मालिश कराने में बड़ा आनन्द आता था,इसलिए उनके कपड़े हमेशा मैले,चीकट रहते थे। उनका परिवार बहुत बड़ा था। सात भाई और उनके बाल-बच्चे सभी उन्हीं पर आश्रित थे। उस पर स्वयं उनका लड़का नवें दरजे में अंग्रेजी पढ़ता था और उसका बबुआई ठाठ निभाना कोई आसान काम न था। राय साहव से उन्हें केवल बारह रुपए वेतन मिलता था;मगर खर्च सौ रुपए से कौड़ी कम न था। इसलिए असामी किसी तरह उनके चंगुल में फँस जाय तो बिना उसे अच्छी तरह चूसे न छोड़ते थे। पहले छ:रुपए वेतन मिलता था,तब असामियों से इतनी नोच-खसोट न करते थे;जब से बारह रुपए हो गये थे,तब से उनकी तृष्णा और भी बढ़ गयी थी;इसलिए राय साहब उनकी तरक्की न करते थे।

गाँव में और तो सभी किसी-न-किसी रूप में उनका दबाव मानते थे;यहाँ तक