होरी ने पत्र पढ़ा और दौड़े हुए भीतर जाकर धनिया को सुनाया। हर्ष के मारे उछला पड़ता था;मगर धनिया किसी विचार में डूबी बैठी रही। एक क्षण के बाद बोली-यह गौरी महतो की भलमनसी है;लेकिन हमें भी तो अपने मरजाद का निवाह करना है। संसार क्या कहेगा! रुपया हाथ का मैल है। उसके लिए कुल-मरजाद नहीं छोड़ा जाता। जो कुछ हमसे हो सकेगा,देंगे और गौरी महतो को लेना पड़ेगा। तुम यही जवाब लिख दो। माँ-बाप की कमाई में क्या लड़की का कोई हक नहीं है? नहीं,लिखना क्या है,चलो,मैं नाई से संदेसा कहलाये देती हूँ।
होरी हतबुद्धि-सा आँगन में खड़ा था और धनिया उस उदारता की प्रतिक्रिया में जो गौरी महतो की सज्जनता ने जगा दी थी,सन्देशा कह रही थी। फिर उसने नाई को रस पिलाया और विदाई देकर बिदा किया।
वह चला गया तो होरी ने कहा-यह तूने क्या कर डाला धनिया? तेरा मिजाज आज तक मेरी समझ में न आया। तू आगे भी चलती है,पीछे भी चलती है। पहले तो इस बात पर लड़ रही थी कि किसी से एक पैसा करज मत लो,कुछ देने-दिलाने का काम नहीं है,और जव भगवान ने गौरी के भीतर पैठकर यह पत्र लिखवाया तो तूने कुल-मरजाद का राग छेड़ दिया। तेरा मरम भगवान ही जाने।
धनिया बोली-मुंह देखकर बीड़ा दिया जाता है,जानते हो कि नहीं। तब गौरी अपनी सान दिखाते थे,अब वह भलमनसी दिखा रहे है। ईट का जवाब चाहे पत्थर हो;लेकिन सलाम का जवाब तो गाली नही है।
होरी ने नाक सिकोड़कर कहा--तो दिखा अपनी भलमनसी। देखें,कहाँ से रुपए लाती है।
धनिया आँखें चमकाकर बोली-रुपए लाना मेरा काम नहीं है,तुम्हारा काम
'मैं तो दुलारी से ही लूंगा।'
'ले लो उसी से। सूद तो सभी लेंगे। जब डूबना ही है,तो क्या तालाब और क्या गंगा।'
होरी बाहर जाकर चिलेम पीने लगा। कितने मजे से गला छूटा जाता था;लेकिन धनिया जब जान छोड़े तब तो। जव देखो उल्टी ही चलती है। इसे जैसे कोई भूत सवार हो जाता है। घर की दशा देखकर भी इसकी आँखें नहीं खुलतीं।
भोला इधर दूसरी सगाई लाये थे। औरत के बगैर उनका जीवन नीरस था। जब तक झुनिया थी,उन्हें हुक्का-पानी दे देती थी। समय से खाने को बुला ले जाती थी। अब बेचारे अनाथ-से हो गये थे। बहुओं को घर के काम-धाम से छुट्टी न मिलती थी। उनकी क्या सेवा-सत्कार करतीं;इसलिए अब सगाई परमावश्यक हो गयी थी। संयोग से एक जवान विधवा मिल गयी,जिसके पति का देहान्त हुए केवल तीन महीने हुए