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२२ गोदान


पर कूद पड़ी और उछल-उछलकर यही रट लगाने लगी-रूपा राजा,सोना चमार-- रूपा राजा,सोना चमार!

ये लोग घर पहुँचे तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी। रुष्ट होकर बोली-आज इतनी देर क्यों की गोवर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही दे देता है।

फिर पति से गर्म होकर कहा--तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे तो खेत में पहुंच गये। खेत कहीं भागा जाता था!

द्वार पर कुआँ था। होरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी सिर पर उँडेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने गये। जौ की रोटियाँ थीं; पर गेहूँ-जैसी सुफ़ेद और चिकनी। अरहर की दाल थी जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे। रूपा बाप की थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईर्ष्या-भरी आँखों से देखा,मानो कह रही थी,वाह रे दुलार!

धनिया ने पूछा--मालिक से क्या बात-चीत हुई?

होरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते हुए कहा-यही तहसील-वसूल की बात थी और क्या। हम लोग समझते हैं, बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे; लेकिन सच पूछो, तो वह हमसे भी ज्यादा दुःखी हैं। हमें अपने पेट ही की चिन्ता है,उन्हें हजारों चिन्ताएं घेरे रहती है।

राय साहब ने और क्या-क्या कहा था, वह कुछ होरी को याद न था। उस सारे कथन का खुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका हुआ रह गया था।

गोबर ने व्यंग्य किया--तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते!हम अपने खेत, बैल, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं। करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है,निरी मोटमरदी। जिसे दुःख होता है,वह दरजनों मोटरें नहीं रखता,महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच-रंग में लिप्त रहता है। मजे से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दुखी हैं!

होरी ने झुंझलाकर कहा-अब तुमसे बहस कौन करे भाई! जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगे। हमी को खेती से क्या मिलता है? एक आने नफरी की मजूरी भी तो नहीं पड़ती। जो दस रुपए महीने का भी नौकर है, वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है; लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता। खेती छोड़ दें, तो और करें क्या? नौकरी कहीं मिलती है? फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है वह नौकरी में तो नहीं है। इसी तरह जमींदारों का हाल भी समझ लो! उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैं, हाकिमों को रसद पहुँचाओ, उनकी सलामी करो, अमलों को खुश करो। तारीख पर मालगुजारी न चुका दें, तो हवालात हो जाय, कुड़की आ जाय। हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता। दो-चार गालियाँघुड़कियाँ ही तो मिलकर रह जाती हैं।

गोबर ने प्रतिवाद किया-यह सब कहने की बातें हैं। हम लोग दाने-दाने को मुहताज हैं,देह पर साबित कपड़े नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है,तब भी गुजर नहीं होता। उन्हें क्या,मजे से गद्दी-मसनद लगाये बैठे हैं,सैकड़ों नौकर-चाकर