है तुम्हारा? मेरे तो परान नहों में समा गये थे।
होरी ने कातर स्वर में कहा--अच्छा हूँ। न जाने कैसा जी हो गया था।
धनिया ने स्नेह में डूबी भर्त्सना से कहा--देह में दम तो है नहीं,काम करते हो जान देकर। लड़कों का भाग था,नहीं तुम तो ले ही डुबे थे!
पटेश्वरी ने हँसकर कहा--धनिया तो रो-पीट रही थी।
होरी ने आतुरता से पूछा--सचमुच तू रोती थी धनिया ?
धनिया ने पटेश्वरी को पीछे ढकेलकर कहा--इन्हें बकने दो तुम। पूछो,यह क्यों कागद छोड़कर घर से दौड़े आये थे?
पटेश्वरी ने चिढ़ाया--तुम्हें हीरा-हीरा कहकर रोती थी। अब लाज के मारे मुकरती है। छाती पीट रही थी।
होरी ने धनिया को सजल नेत्रों से देखा--पगली है और क्या। अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिए मुझे जिलाये रखना चाहती है।
दो आदमी होरी को टिकाकर घर लाये और चारपाई पर लिटा दिया। दातादीन तो कुढ़ रहे थे कि वोआई में देर हुई जाती है,पर मातादीन इतना निर्दयी न था। दौड़कर घर से गर्म दूध लाया,और एक शीशी में गुलाबजल भी लेता आया। और दूध पीकर होरी में जैसे जान आ गयी।
उसी वक्त गोबर एक मजदूर के सिर पर अपना सामान लादे आता दिखायी दिया।
गाँव के कुत्ते पहले तो मूंँकते हुए उसकी तरफ दौड़े। फिर दुम हिलाने लगे। रूपा ने कहा--भैया आये,और तालियाँ बजाती हुई दौड़ी। सोना भी दो-तीन कदम आगे बढ़ी;पर अपने उछाह को भीतर ही दवा गयी। एक साल में उसका यौवन कुछ और संकोचशील हो गया था। झुनिया भी घूँघट निकाले द्वार पर खड़ी हो गयी।
गोबर ने माँ-बाप के चरण छुए और रूपा को गोद में उठाकर प्यार किया। धनिया ने उसे आशीर्वाद दिया और उसका सिर अपनी छाती से लगाकर मानो अपने मातृत्व का पुरस्कार पा गयी। उसका हृदय गर्व से उमड़ा पड़ता था। आज तो वह रानी है। इस फटे-हाल में भी रानी है। कोई उसकी आँखें देखे,उसका मुख देखे,उसका हृदय देखे,उसकी चाल देखे। रानी भी लजा जायगी। गोबर कितना बड़ा हो गया है और पहन-ओढ़कर कैसा भलामानस लगता है। धनिया के मन में कभी अमंगल की शंका न हुई थी। उसका मन कहता था,गोबर कुशल से है और प्रसन्न है। आज उसे आँखों देखकर मानो उसके जीवन के धूल-धक्कड़ में गुम हुआ रत्न मिल गया है। मगर होरी ने मुंँह फेर लिया था।
गोबर ने पूछा--दादा को क्या हुआ है,अम्माँ?
धनिया घर का हाल कहकर उसे दुखी न करना चाहती थी। बोली--कुछ नहीं है बेटा,जरा सिर में दर्द है। चलो,कपड़े उतारो,हाथ-मुंँह धोओ? कहाँ थे तुम इतने दिन? भला इस तरह कोई घर से भागता है? और कभी एक चिट्ठी तक न भेजी। आज साल-भर के बाद जाके सुधि ली है। तुम्हारी राह देखते-देखते आँखें फूट