आपने सृष्टि की है,उसके प्राणियों की सृष्टि की है,और प्राण जैसे देह का संचालन करता है। प्राण निकल जाय,तो देह की क्या गति होगी? मातृत्व महान् गौरव का पद है देवीजी! और गौरव के पद में कहाँ अपमान और धिक्कार और तिरस्कार नहीं मिला? माता का काम जीवन-दान देना है। जिसके हाथों में इतनी अतुल शक्ति है,उसे इसकी क्या परवाह कि कौन उससे रूठता है,कौन बिगड़ता है। प्राण के बिना जैसे देह नहीं रह सकता,उसी तरह प्राण को भी देह ही सबसे उपयुक्त स्थान है। मैं आपको धर्म और त्याग का क्या उपदेश दूंँ? आप तो उसकी सजीव प्रतिमा हैं। मैं तो यही कहूँगा...
गोविन्दी ने अधीर होकर कहा--लेकिन मैं केवल माता ही तो नहीं हूँ,नारी भी तो हूँ?
मेहता ने एक मिनट तक मौन रहने के बाद कहा--हाँ, है;लेकिन मैं समझता हूँ कि नारी केवल माता है,और इसके उपरान्त वह जो कुछ है,वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना,सबसे बड़ी तपस्या,सवसे बड़ा त्याग और सबसे महान् विजय है। एक शब्द में उसे लय कहूँगा--जीवन का,व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी। आप मिस्टर खन्ना के विषय में इतना ही समझ लें कि वह अपने होग में नहीं हैं। वह जो कुछ कहते हैं या करते हैं,वह उन्माद की दशा में करते हैं; मगर यह उन्माद शान्त होने में बहुत दिन न लगेंगे,और वह समय बहुत जल्द आयेगा,जब वह आपको अपनी इप्टदेवी समझेंगे।
गोविन्दी ने इसका कुछ जवाब न दिया। धीरे-धीरे कार की ओर चली। मेहता ने बढ़कर कार का द्वार खोल दिया। गोविन्दी अन्दर जा बैठी। कार चली;मगर दोनों मौन थे।
गोविन्दी जब अपने द्वार पर पहुंँचकर कार से उतरी, तो बिजली के प्रकाश में मेहता ने देखा,उसकी आँखें सजल हैं।
बच्चे घर में से निकल आये और'अम्माँ-अम्माँ'कहते हुए माता से लिपट गये। गोविन्दी के मुख पर मातृत्व की उज्ज्वल,गौरवमयी ज्योति चमक उठी।
उसने मेहता से कहा--इस कष्ट के लिए आपको बहुत धन्यवाद!-और सिर नीचा कर लिया। आँसू की एक बूंँद उसके कपोल पर आ गिरी थी।
मेहता की आँखें भी सजल हो गयीं--इस ऐश्वर्य और विलास के बीच में भी यह नारी-हृदय कितना दुखी है!
१९
मिर्जा़ खुर्शेद का हाता क्लब भी है,कचहरी भी, अखाड़ा भी। दिन भर जमघट लगा रहता है। मुहल्ले में अखाड़े के लिए कहीं जगह नहीं मिलती थी। मिर्जा़ ने एक छप्पर डलवाकर अखाड़ा बनवा दिया है;वहाँ नित्य सौ-पचास लड़न्तिये आ जुटते हैं। मिर्जा़जी भी उनके साथ जोर करते हैं। मुहल्ले की पंचायतें भी यहीं होती हैं। मियाँ