गोदान | १९७ |
वह सम्पूर्ण एकान्त चाहती थी। किसी से बोलने की इच्छा न थी; मगर यहाँ भी एक महाशय आ ही गये। उस पर बच्चा भी रोने लगा था।
मेहता ने समीप आकर विस्मय के साथ पूछा––आप इस वक्त यहाँ कैसे आ गयीं?
गोविन्दी ने बालक को चुप कराते हुए कहा––उसी तरह जैसे आप आ गये।।
मेहता ने मुस्कराकर कहा––मेरी बात न चलाइए। धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। लाइए, मैं बच्चे को चुप कर दूंँ।
'आपने यह कला कब सीखी?'
'अभ्यास करना चाहता हूँ। इसकी परीक्षा जो होगी!'
'अच्छा! परीक्षा के दिन करीब आ गये?'
'यह तो मेरी तैयारी पर है। जब तैयार हो जाऊँगा, बैठ जाऊँगा। छोटी-छोटी उपाधियों के लिए हम पढ़-पढ़कर आँखें फोड़ लिया करते हैं। यह तो जीवन-व्यापार की परीक्षा है।'
'अच्छी बात है, मैं भी देखूँगी आप किस ग्रेड में पास होते हैं।'
यह कहते हुए उसने बच्चे को उनकी गोद में दिया। उन्होंने बच्चे को कई बार उछाला,तो वह चुप हो गया। बालकों की तरह डींग मारकर बोले--देखा आपने, कैसा मन्तर के ज़ोर से चुप कर दिया। अब मैं भी कहीं से एक बच्चा लाऊँगा।
गोविन्दी ने विनोद किया––बच्चा ही लाइएगा या उसकी माँ भी?
मेहता ने विनोद-भरी निराशा से सिर हिलाकर कहा––ऐसी औरत तो कही मिलती ही नहीं।
'क्यों, मिस मालती नहीं है? सुन्दरी, शिक्षित, गुणवती, मनोहारिणी; और आप क्या चाहते हैं?'
'मिस मालती में वह एक बात भी नहीं है जो मैं अपनी स्त्री में देखना चाहता हूँ।'
गोविन्दी ने इस कुत्सा का आनन्द लेते हुए कहा––उसमें क्या बुराई है, सुनूँ। भौरे तो हमेशा घेरे रहते हैं। मैंने सुना है, आजकल पुरुषों को ऐसी ही औरतें पसन्द आती हैं।
मेहता ने बच्चे के हाथों से अपनी मूँछों की रक्षा करते हुए कहा––मेरी स्त्री कुछ और ही ढंग की होगी। वह ऐसी होगी, जिसकी मैं पूजा कर सकूँगा।
गोविन्दी अपनी हँसी न रोक सकी तो आप स्त्री नहीं, कोई प्रतिमा चाहते हैं। स्त्री तो ऐसी आपको शायद ही कहीं मिले।
'जी नहीं, ऐसी एक देवी इसी शहर में है।'
'सच! मैं भी उसके दर्शन करती, और उसी तरह बनने की चेष्टा करती।'
'आप उसे खूब जानती हैं। वह एक लखपती की पत्नी है, पर विलास को तुच्छ समझती है; जो उपेक्षा और अनादर सहकर भी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होती, जो मातृत्व की वेदी पर अपने को बलिदान करती है, जिसके लिए त्याग ही सबसे बड़ा अधिकार है, और जो इस योग्य है कि उसकी प्रतिमा बनाकर पूजी जाय।'