मँगरू ने शोभा को बहुत बुरा-भला कहा--जमामार, बेईमान इत्यादि। लेने की बेर तो दुम हिलाते हो,जब देने की बारी आती है,तो गुर्राते हो। घर बिकवा लूंगा;बैल बधिये नीलाम करा लंगा।
शोभा ने फिर छेड़ा-अच्छा,ईमान से बताओ साह, कितने रुपए दिये थे,जिसके अव तीन सौ रुपये हो गये हैं?
'जब तुम साल के साल सूद न दोगे,तो आप ही बढ़ेंगे।'
'पहले-पहल कितने रुपये दिये थे तुमने? पचास ही तो।'
'कितने दिन हुए,यह भी तो देख।'
'पाँच-छ:साल हुए होंगे?'
'दस साल हो गये पूरे,ग्यारहवाँ जा रहा है।'
'पचास रुपये के तीन सौ रुपए लेते तुम्हें जरा भी सरम नहीं आती!'
'सरम कैसी,रुपये दिये हैं कि खैरात माँगते हैं।'
होरी ने इन्हें भी चिरौरी-विनती करके बिदा किया। दातादीन ने होरी के साझे में खेती की थी। बीज देकर आधी फसल ले लेंगे। इस वक्त कुछ छेड़-छाड़ करना नीतिविरुद्ध था। झिंगुरीसिंह ने मिल के मैनेजर से पहले ही सब कुछ कह-सुन रखा था। उनके प्यादे गाड़ियों पर ऊख लदवाकर नाव पर पहुंचा रहे थे। नदी गाँव से आध मील पर थी। एक गाड़ी दिन-भर में सात-आठ चक्कर कर लेती थी। और नाव एक खेवे में पचास गाड़ियों का बोझ लाद लेती थी। इस तरह किफायत पड़ती थी। इस सुविधा का इन्तज़ाम करके झिंगुरीसिंह ने सारे इलाके को एहसान से दबा दिया था।
तौल शुरू होते ही झिंगुरीसिंह ने मिल के फाटक पर आसन जमा लिया। हरएक की ऊख तौलाते थे,दाम का पुरजा लेते थे,खजांची से रुपए वसूल करते थे और अपना पावना काटकर असामी को दे देते थे। असामी कितना ही रोये,चीखे, किसी की न सुनते थे। मालिक का यही हुक्म था। उनका क्या वस!
होरी को एक सौ बीस रुपए मिले। उसमें से झिंगुरीसिंह ने अपने पूरे रुपये सूद समेत काटकर कोई पचीस रुपये होरी के हवाले किये।
होरी ने रुपये की ओर उदासीन भाव से देखकर कहा-यह लेकर मैं क्या करूँगा ठाकुर,यह भी तुम्हीं ले लो। मेरे लिए मजूरी बहुत मिलेगी।
झिंगुरी ने पचीसों रुपये जमीन पर फेंककर कहा--लो या फेंक दो,तुम्हारी खुशी। तुम्हारे कारन मालिक की घुड़कियाँ खायीं और अभी राय साहब सिर पर सवार हैं कि डाँड़ के रुपये अदा करो। तुम्हारी गरीबी पर दया करके इतने रुपये दिये देता हूँ, नहीं एक धेला भी न देता। अगर राय साहब ने सख्ती की तो उल्टे और घर से देने पड़ेंगे।
होरी ने धीरे से रुपये उठा लिये और बाहर निकला कि नोखेराम ने ललकारा। होरी ने जाकर पचीसों रुपए उनके हाथ पर रख दिये,और बिना कुछ कहे जल्दी से भाग गया। उसका सिर चक्कर खा रहा था। शोभा को इतने ही रुपये मिले थे। वह बाहर निकला,तो पटेश्वरी ने घेरा।