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गो-दान
 


भी सामने जाकर फटकार दूँ कि तुमको झुनिया से बोलने का कोई मजाल नहीं है,तो सारी सेखी निकल जाय। अच्छा! दादा भी बिगड़ रहे हैं। केले के लिए आज ठीकरा भी तेज हो गया। मैं जरा अदब करता हूँ,उसी का फल है। यह तो दादा भी वहीं जा रहे हैं। अगर झुनिया को इन्होंने मारा-पीटा तो मुझसे न सहा जायगा। भगवान्! अब तुम्हारा ही भरोसा है। मैं न जानता था इम विपत में जान फंँसेगी। झुनिया मुझे अपने मन में कितना धूर्त,कायर और नीच समझ रही होगी;मगर उसे मार कैसे सकते हैं? घर से निकाल भी कैसे सकते है? क्या घर में मेरा हिस्सा नहीं है? अगर झुनिया पर किसी ने हाथ उठाया,तो आज महाभारत हो जायगा। माँ-बाप जब तक लड़कों की रक्षा करे, तब तक माँ-बाप है। जब उनमें ममता ही नहीं है,तो कैसे मांँ-बाप!"

होरी ज्यों ही मँडै़या से निकला,गोबर भी दबे पाँव धीरे-धीरे पीछे-पीछे चला;लेकिन द्वार पर प्रकाश देखकर उसके पाँव बँध गये। उस प्रकाशरेखा के अन्दर वह पाँव नहीं रख सकता। वह अँधेरे में ही दीवार मे चिमट कर खड़ा हो गया। उमकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। हाय! बेचारी झनिया पर निरपराध यह लोग झल्ला रहे है,और वह कुछ नही कर सकता। उसने खेल-खेल में जो एक चिनगारी फेंक दी थी,वह मारे खलिहान को भस्म कर देगी,यह उसने न समझा था। और अब उसमें इतना साहस न था कि सामने आकर कहे--हाँ,मैंने चिनगारी फेकी थी। जिन टिकौनों से उसने अपने मन को सँभाला था,वे मब इस भूकम्प में नीचे आ रहे और वह झोंपड़ा नीचे गिर पड़ा। वह पीछे लौटा। अब वह झुनिया को क्या मुँह दिखाये।

वह सौ क़दम चला;पर इस तरह,जैसे कोई सिपाही मैदान से भागे। उसने झुनिया से प्रीति और विवाह की जो बातें की थीं,वह सब याद आने लगीं। वह अभिसार की मीठी स्मृतियाँ याद आयीं जब वह अपने उन्मत्त उसासों में,अपनी नशीली चितवनों में मानो अपने प्राण निकालकर उसके चरणों पर रख देता था। झुनिया किसी वियोगी पक्षी की भाँति अपने छोटे-से घोंसले में एकान्त-जीवन काट रही थी। वहाँ नर का मत्त आग्रह न था,न वह उद्दीप्त उल्लास,न शावकों की मीठी आवाजें;मगर बहेलिये का जाल और छल भी तो वहाँ न था। गोबर ने उसके एकान्त घोसले में जाकर उसे कुछ आनन्द पहुँचाया या नहीं,कौन जाने;पर उसे विपत्ति में तो डाल ही दिया। वह सँभल गया। भागता हुआ सिपाही मानो अपने एक साथी का बढ़ावा सुनकर पीछे लौट पड़ा।

उसने द्वार पर आकर देखा,तो किवाड़ बन्द हो गये थे। किवाड़ों के दराज़ों से प्रकाश की रेखाएँ बाहर निकल रही थीं। उसने एक दराज़ से अन्दर झाँका। धनिया और झुनिया बैठी हुई थीं। होरी खड़ा था। झुनिया की सिसकियाँ सुनायी दे रही थीं और धनिया उसे समझा रही थी--बेटी,तू चलकर घर में बैठ। मैं तेरे काका और भाइयों को देख लूंँगी। जब तक हम जीते हैं,किसी बात की चिन्ता नहीं है। हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आँखों देख भी न सकेगा। गोबर गद्गद हो गया। आज वह किसी लायक होता,तो दादा और अम्माँ को सोने से मढ़ देता और कहता--अब तुम कुछ न करो,आराम से बैठे खाओ और जितना दान-पुन चाहो,करो। झुनिया के प्रति अब उसे कोई शंका