आने का नींद में साहस न था। आज तमाखू भी न मिला कि उसी से मन बहलाता। उपला मुलगा लाया था,पर शीत में वह भी बुझ गया। बेवाय फटे पैरों को पेट में डालकर और हाथों को जाँघों के बीच में दबाकर और कम्बल में मुंँह छिपाकर अपनी ही गर्म साँसों से अपने को गर्म करने की चेप्टा कर रहा था। पाँच साल हुए,यह मिर्जई बनवाई थी। धनिया ने एक प्रकार से जबरदस्ती बनबा दी थी, वही जब एक बार काबुली से कपड़े लिये थे,जिसके पीछे कितनी सांँसत हई,कितनी गालियाँ खानी पड़ी,और कम्बल तो उसके जन्म से भी पहले का है। बचपन में अपने बाप के साथ वह इसी में सोता था,जवानी में गोबर को लेकर इसी कम्बल में उसके जाड़े कटे थे और बुढ़ापे में आज वही बूढ़ा कम्बल उसका साथी है,पर अब वह भोजन को चबानेवाला दाँत नही,दुखनेवाला दाँत है। जीवन में ऐसा तो कोई दिन ही नही आया कि लगान और महाजन को देकर कभी कुछ बचा हो। और बैठे बैठाये यह एक नया जंजाल पड़ गया। न करो तो दुनिया हँसे,करो तो यह संशय बना रहे कि लोग क्या कहते हैं। सब यह समझते हैं कि वह पुनिया को लूट लेता है, उसकी सारी उपज घर में भर लेता है। एहसान तो क्या होगा उलटा कलक लग रहा है। और उधर भोला कई बेर याद दिला चुके हैं कि कहीं कोई सगाई का डौल करो,अब काम नहीं चलता। सोभा उससे कई बार कह चुका है कि पुनिया के विचार उसकी ओर से अच्छे नहीं है। न हों। पुनिया की गृहस्थी तो उसे सँभालनी ही पड़ेगी,चाहे हंँसकर संँभाले या रोकर। धनिया का दिल भी अभी तक साफ नहीं हुआ। अभी तक उसके मन में मलाल बना हुआ है। मुझे सब आदमियों के सामने उसको मारना न चाहिए था। जिसके साथ पचीस माल गुजर गये,उसे मारना और सारे गाँव के सामने,मेरी नीचता थी;लेकिन धनिया ने भी तो मेरी आबरू उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे सामने से कैसा कतगकर निकल जाती है,जैसे कभी की जान-पहचान ही नहीं। कोई बात कहनी होती है,तो सोना या रूपा मे कहलाती है। देखता हूँ उसकी साड़ी फट गयी है;मगर कल मुझसे कहा भी,तो सोना की साड़ी के लिए,अपनी साड़ी का नाम तक न लिया। सोना की साड़ी अभी दो-एक महीने थेगलियांँ लगाकर चल सकती है। उसकी साड़ी तो मारे पेवंदों के बिलकुल कथरी हो गयी है। और फिर मैं ही कौन उसका मनुहार कर रहा हूंँ। अगर मैं ही उसके मन की दो-चार बातें करता रहता,तो कौन छोटा हो जाता। यही तो होता वह थोड़ा-सा अदग्वान कराती,दो-चार लगनेवाली बात कहती तो क्या मुझे चोट लग जाती;लेकिन मैं बुड्ढा होकर भी उल्लू बना रह गया। वह तो कहो इस बीमारी ने आकर उसे नर्म कर दिया,नही जाने कब तक मुंँह फुलाये रहती।
और आज उन दोनों में जो बातें हुई थीं,वह मानो भूखे का भोजन थीं। वह दिल मे बोली थी और होरी गद्गद् हो गया था। उसके जी में आया,उसके पैरों पर सिर रख दे और कहे--मैंने तुझे मारा है तो ले मैं सिर झुकाये लेता हूँ,जितना चाहे मार ले,जितनी गालियाँ देना चाहे दे ले।
सहसा उसे मंँडै़या के सामने चूड़ियों की झंकार सुनायी दी। उसने कान लगाकर मुना। हाँ,कोई है। पटवारी की लड़की होगी,चाहे पण्डित की घरवाली हो। मटर