तो वह प्रजा को पालनेवाला वादशाह,और कहाँ आजकल के मन्त्री और मिनिस्टर,पाँच,छ,सात,आठ हजार माहवार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमॉक्रेसी!
हिरनों का एक झुण्ड चरता हुआ नज़र आया। मिर्जा़ के मुख पर शिकार का जोश चमक उठा। बन्दूक सँभाली और निशाना मारा। एक काला-सा हिरन गिर पड़ा। वह मारा! इस उन्मत्त ध्वनि के साथ मिर्जा भी वेतहागा दौड़े। बिलकुल बच्चों की तरह उछलते,कूदते,तालियाँ बजाते।
समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियाँ काट रहा था। वह भी चट-पट वक्ष से उतरकर मिर्जा़जी के साथ दौड़ा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थी,उसके पैरों में कम्पन हो रहा था और आँखें पथरा गयी थीं।
लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देखकर कहा--अच्छा पट्ठा था,मन-भर से कम न होगा। हुकुम हो,तो मैं उठाकर पहुँचा दूंँ?
मिर्जा़ कुछ बोले नहीं। हिरन की टॅगी हुई,दीन वेदना से भरी आँखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। ज़रा-सा पत्ता भी खड़कता,तो कान खड़े करके चौकड़ियाँ भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा था;मगर अब निस्पन्द पड़ा है। उसकी खाल उधेड़ लो,उसकी बोटियाँ कर डालो,उसका क़ीमा बना डालो,उसे खबर न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण था,जो आनन्द था,वह क्या इस निर्जीव शव में है? कितनी सुन्दर गठन थी,कितनी प्यारी आँखें,कितनी मनोहर छवि? उसकी छलाँगें हृदय में आनन्द की तरंगें पैदा कर देती थीं,उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियाँ भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी,जैसे फूल सुगन्ध बिखेरता है;लेकिन अब! उसे देखकर ग्लानि होती है।
लकड़हारे ने पूछा--कहाँ पहुँचाना होगा मालिक? मुझे भी दो-चार पैसे दे देना। मिर्जा़जी जैसे ध्यान से चौंक पड़े। बोले-अच्छा उठा ले। कहाँ चलेगा?
'जहाँ हुकुम हो मालिक।'
'नहीं,जहाँ तेरी इच्छा हो,वहाँ ले जा। मैं तुझे देता हूँ।'
लकड़हारे ने मिर्जा़ की ओर कुतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया।'अरे नहीं मालिक,हुजूर ने सिकार किया है,तो हम कैसे खा लें।'
'नहीं-नहीं मैं खुशी से कहता हूँ, तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है?'
'कोई आधा कोस होगा मालिक!'
'तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। देखूँगा,तुम्हारे वाल-वच्चे कैसे खुश होते हैं।'
‘ऐसे तो मैं न ले जाऊँगा सरकार!आप इतनी दूर से आये,इस कड़ी धूप में सिकार किया,मैं कैसे उठा ले जाऊँ?'
'उठा उठा,देर न कर। मुझे मालूम हो गया तु भला आदमी है।'
लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रह कर मिर्जा़जी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से