देहि लोग बहु. मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं।।
और सब से पुलकित होकर कहते हैं—
तुम्ह प्रिय पाहुन बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे।
देव काह हम तुम्हहि गोसाई। ईधन पात किरात मिताई॥
यह हमारि अति बडि सेवकाई। लेहि न बासन बसन चौराई॥
हम जड़ जीव जीवधनघाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती।
सपने हुँ धम्म-बुद्धि कम काऊ। यह रघुनंदन-दरस - प्रभाऊ॥
उस पुण्य-समाज के प्रभाव से चित्रकूट की रमणीयता में पवित्रता
भी मिल गई। उस समाज के भीतर नीति, स्नेह, शील, विनय,
त्याग आदि के संघर्ष से जो धर्म-ज्योति फूटो, उससे आसपास का सारा प्रदेश जगमगा उठा—उसकी मधुर स्मृति से आज भी वहाँ
की वनस्थली परम पवित्र है। चित्रकूट की उस सभा की कार्रवाई
क्या थी, धर्म के एक एक अंग की पूर्ण और मनोहर अभिव्यक्ति थी। रामचरितमानस में वह सभा एक आध्यात्मिक घटना है धर्म के
इतने स्वरूपों की एक साथ योजना, हृदय की इतनी उदात्त
वृत्तियों की एक साथ उद्भावना, तुलसी के ही विशाल 'मानस'
में संभव थी। यह संभावना उस समाज के भीतर बहुत से भिन्न
भिन्न वर्गों के समावेश द्वारा संघटित की गई है। राजा और प्रजा,
गुरु और शिष्य, भाई और भाई, माता और पुत्र, पिता और पुत्री, श्वशुर और जामात, सास और बहू, क्षत्रिय और ब्राह्मण,
और शूद्र, सभ्य और असभ्य के परस्पर व्यवहारों का, उपस्थित
प्रसंग के धर्म-गांभीर्य और भावोत्कर्ष के कारण, अत्यंत मनोहर रूप प्रस्फुटित हुआ। धर्म के उस स्वरूप को देख सब मोहित हो गए- क्या नागरिक, क्या ग्रामीण और क्या जंगली। भारतीय शिष्टता और सभ्यता का चित्र यदि देखना हो तो इस राज-समाज में देखिए। कैसी परिष्कृत भाषा में, कैसी प्रवचन-पटुता के साथ, प्रस्ताव उपस्थित