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तुलसी की काव्य-पद्धति


योरप में रहा है। वहाँ कुछ दिन नकली हृदयों के कारखाने जारी रहे। पर पीछे उन खिलौनों से लोग ऊब गए।

यह तो स्थिर बात है कि तुलसीदासजी ने वाल्मीकिरामायण, अध्यात्मरामायण, महारामायण, श्रीमद्भागवत, हनुमन्नाटक, प्रसन्न- राघव नाटक इत्यादि अनेक ग्रंथों से रचना की सामग्री ली है। इन ग्रंथों की बहुत सी उक्तियाँ उन्होंने ज्यों की त्यों अनूदित करके रखी हैं—जैसे, वर्षा और शरद् ऋतु के वर्णन बहुत कुछ भागवत से लिए हुए हैं। धनुषयज्ञ के प्रसंग में उन्होंने हनुमन्नाटक और प्रसन्न-राघव नाटक से बहुत सहायता ली है। पर उन्होंने जो संस्कृत उक्तियाँ ली हैं उन्हें भाषा पर अपने अद्वितीय अधिकार के बल से एकदम मूल हिंदी-रचना के रूप मे कर डाला है। कहीं से संस्कृत-पन या वाक्य-विन्यास की दुरूहता नहीं आने दी है। बहुत जगह तो उन्होंने उक्ति को अधिक व्यंजक बनाकर और चमका दिया है। उदाहरण के लिये हनुमन्नाटक का यह श्लोक लीजिए—

या विभूतिर्दशग्रीवे शिरश्छेदेऽपि शङ्करात्।
दर्शनादामदेवस्य सा विभूतिविभीषणे॥

इसे गोस्वामीजी ने इस रूप में लिया है—

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा विभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।।

इस अनुवाद में “दस माथ दिएँ” के जोड़ में 'दरसन ही ते न रखने से याचक के बिना प्रयास प्राप्त करने का जोर तो निकल गया, पर 'सकुचि' पद लाने से दाता के असीम औदार्य की भावना से उक्ति परिपूर्ण हो गई। 'सकुचि' शब्द की व्यंजना यह है कि इतनी बड़ी संपत्ति भी देते समय राम को बहुत कम जान पड़ी।

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