दिखाता हुआ दूर करता था। इससे नायक के व्यक्तित्व का
प्रभाव नायिका पर और भी अधिक हो जाता था, उस पर वह और
भी अधिक मुग्ध हो जाती थी। ‘रासो’ नाम से प्रचलित वीरकाव्यों में वीर नायक अपने विरोधियों को परास्त करने के उपरांत
नायिका को ले जाता था। रामचंद्रजी का तेज और पराक्रम
धनुष तोड़ने पर व्यक्त हुआ ही था और सीता पर उसका अनुराग-
वर्द्धक प्रभाव पड़ा ही था कि परशुराम के कूद पड़ने से प्रभाव-वृद्धि
का दूसरा अवसर निकल आया। परशुराम ऐसे जगद्विजयी और
तेजस्वी का भी तेज राम के सामने फीका पड़ गया। उस समय
राम की ओर सीता का मन कितने और अधिक वेग से आकर्षित
हुआ होगा; राम के स्वरूप ने किस शक्ति के साथ उनके हृदय
में घर किया होगा!
गोस्वामीजी ने यद्यपि अपनी रचना “स्वांतःसुखाय” बताई है, पर वे कला की कृति के अर्थ और प्रभाव की प्रेषणीयता (Communicability) को बहुत ही आवश्यक मानते थे। किसी रचना का वही भाव जो कवि के हृदय में था यदि पाठक या श्रोता के हृदय तक न पहुँच सका तो ऐसी रचना कोई शोभा नहीं प्राप्त कर सकती; उसे एक प्रकार से व्यर्थ समझना चाहिए—
मनि मानिक-मुकुता-छबि जैसी। अहि, गिरि, गज-सिर सोह न तैसी॥
नृप-किरीट तरुनी-तन पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥
तैसइ सुकवि-कवित बुध कहहीं। उपजहिं अनत, अनत छबि लहहीं॥
आजकल सब बातें विलायती दृष्टि से देखी जाती हैं। अतः
यह पूछा जा सकता है कि तुलसीदास की रचना अधिकतर स्वानु-
भूति-निरूपिणी (Subjective) है अथवा बाह्यार्थ-निरूपिणी (Ob-
jective)। रामचरित-मानस के संबंध में तो यह प्रश्न हो ही नहीं
सकता क्योंकि वह एक प्रबंध-काव्य या महाकाव्य है। प्रबंध-