है और लोक-धर्म का स्वरूप प्रत्यक्ष हो सकता है। इस भावना का हिदू हृदय से बहिष्कार नहीं हो सकता। जहाँ हमें दिन दिन बढ़ता हुआ अत्याचार दिखाई पड़ा कि हम उस समय की प्रतीक्षा करने लगेंगे जब वह "रावणत्व" की सीमा पर पहुँचेगा और “रामत्व" का आविर्भाव होगा। तुलसी के मानस से रामचरित की जो शील-शक्ति-सौंदर्यमयी स्वच्छ धारा निकली, उसने जीवन की प्रत्येक स्थिति भीतर पहुँचकर भगवान् के स्वरूप का प्रतिबिब झलका दिया। रामचरित की इसी जीवन-व्यापकता ने तुलसी की वाणी को राजा, रंक, धनी, दरिद्र, मूर्ख, पंडित सब के हृदय और कंठ में सब दिन के लिये बसा दिया। किसी श्रेणी का हिंदू हो, वह अपने प्रत्येक जीवन में राम को साथ पाता है——संपत्ति में, विपत्ति में, घर में, वन में रणक्षेत्र में, आनंदोत्सव में जहाँ देखिए, वहाँ राम। गोस्वामीजी ने उत्तरापथ के समस्त हिंदू जीवन को राममय कर दिया। गोस्वामीजी के वचनों में हृदय को स्पर्श करने की जो शक्ति है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उनकी वाणी के प्रभाव से आज भी हिंदू भक्त अवसर के अनुसार सौंदर्य पर मुग्ध होता है, महत्त्व पर श्रद्धा करता है, शील की ओर प्रवृत्त होता है, सन्मार्ग पर पैर रखता है, विपत्ति में धैर्य धारण करता है, कठिन कर्म में उत्साहित होता है, दया से आई होता है, बुराई पर ग्लानि करता है, शिष्टता का अवलंबन करता है और मानव-जीवन के महत्त्व का अनुभव करता है।
जिस विदेशी परंपरा की भक्ति का उल्लेख ऊपर हुआ है उसके
कारण विशुद्ध भारतीय भक्ति-मार्ग का स्वरूप बहुत कुछ आच्छन्न
हो चला था। गोस्वामीजी की सूक्ष्म दृष्टि किस प्रकार इस बात
पर पड़ी यह आगे दिखाया जायगा। भारतीय भक्ति-मार्ग और विदेशी भक्ति-मार्ग में जो स्वरूप-भेद है उसका संक्षेप में निरूपण हम यहाँ पर कर देना चाहते हैं।