माया-बस्य गोस्वामी तुलसीदास का अंश कहना (ब्रह्म ही न कहना) अद्वैत मत के अनुकूल न होकर रामानुज के विशिष्टाद्वैत के अनुकूल है जिसके अनुसार चिदचिद्वि- शिष्ट ईश्वर एक ही है। चित् (जीव) और अचित् (जगत्) दोनों ईश्वर के अंग या शरीर हैं। ईश्वर-शरीर के इस सूक्ष्म चित् और सूक्ष्म अचित् से ही स्थूल चित् और स्थूल अचित् अर्थात् अनेक जीवों और जगत् की उत्पत्ति हुई है। इससे यह लक्षित होता है कि परमार्थ-दृष्टि से-शुद्ध ज्ञान की दृष्टि से तो अद्वैत मत गोस्वामी- जी को मान्य है, पर भक्ति के व्यावहारिक सिद्धांत के अनुसार भेद करके चलना वे अच्छा समझते हैं। गरुड़ के ईश्वर और जीव में भेद पूछने पर काक भुशुंडि कहते हैं- जीव अभिमानी । ईस-बस्य माया गुन खानी । परबस जीव, स्वबस भगवंता । जीव अनेक, एक श्री कंता । इतना भेद करके वे परमार्थ-दृष्टि से अद्वैत पक्ष पर आते हुए कहते हैं कि ये भेद यद्यपि मायाकृत हैं-परमार्थतः सत्य नहीं हैं-पर इन्हें मिटाने के लिये ईश्वर को स्वामी मानकर भक्ति करनी पड़ेगी। मुधा भेद जद्यपि कृत माया । बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया । व्याप्य-व्यापक की यह एकत्व-भावना भी विशिष्टाद्वैत के अधिक अनुकूल जान पड़ती है- जो कछु बात बनाइ कहाँ, तुलसी तुममें, तुमहूँ उर माहीं। जानकी-जीवन जानत है। हम हैं तुम्हरे, तुममें सक नाहीं ।। इसी प्रकार इस नीचे के वाक्य से भी 'अद्वैत' से असंतोष व्यंजित होता है- जे मुनि ते पुनि श्रापुहि श्रापु को ईस कहावत सिद्ध सयाने । अंत में इस संबंध में इतना कह देना आवश्यक है कि तुलसीदासजी भक्तिमार्गी थे; अत: उनकी वाणी में भक्ति के गूढ़ रहस्यों का ढूँढ़ना ही अधिक फलदायक होगा, ज्ञान-मार्ग के सिद्धांतों का ढूँढ़ना नहीं।
पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/७८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।