ज्ञान और भक्ति 1 । सेवक सेन्य भाव बिनु भव न तरिय, उरगारि ! भक्ति और ज्ञान का तारतम्य अत्यंत गूढ़ और रहस्यपूर्ण उक्ति द्वारा गोस्वामीजी ने प्रदर्शित किया है। वे कहते हैं- ग्यान बिराग जोग बिग्याना । ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना ॥ माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ । नादिबर्ग जानहि, सब कोऊ ॥ मोह न नारि नारि के रूपा । पन्नगारि! यह रीति अनूपा ॥ ज्ञान पुरुष अर्थात् चैतन्य है और भक्ति सत्त्वस्थ प्रकृति-स्वरूपा है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि 'ज्ञान' बोधवृत्ति और भक्ति रागात्मिका वृत्ति है। बोधवृत्ति राग के द्वारा आक्रांत हो सकती है, पर एक राग दूसरे राग को दूर रखता है। सत्त्वस्थ राग यदि दृढ़ हो जायगा तो राजस और तामस दोनों रागों को रखेगा रागात्मिका वृत्ति को मार डालना तो बात ही बात है। अत. उसे एक अच्छी जगह टिका देना चाहिए-ऐसी जगह टिका देना चाहिए जहाँ से वह न लोक-धर्म के पालन में, न शील की उच्च साधना में और न ज्ञान के मार्ग में बाधक हो सके। इसके लिये भगवान् के सगुण रूप से बढ़कर और क्या आलंबन हो सकता है जिसमें शील, शक्ति और सौंदर्य तीनों परमावस्था को प्राप्त होते हैं- राम काम सत कोटि सुभग तन । दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ॥ मरुत कोटि सत बिपुल बल, रबि सत कोटि प्रकास । ससि सत कोटि सो सीतल समन सकल भव-त्रास ॥ काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत । धूमकेतु सत कोटि सम, दुराधर्ष भगवंत । यद्यपि कथा के प्रसंग में राम विष्णु के अवतार ही कहे गए हैं, पर भक्त की अनन्य भावना में वे देव-कोटि से भी परे हैं- विष्णु कोटि सम पालन-करता । रुद्र कोटि सत सम संहरता।
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